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इक्खंडागमे वेयणाखंडं
[ ४, ६, ८, १२.
ण च अत्थि तम्हा' सो ण पउत्तो त्ति । संपहि असुद्ध संगहणयविसए सामित्तपरूवणट्ट
मुत्तरमुत्तं भणदि
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जीवाणं वा ॥ १२ ॥
* संगहियणोजीव-जीवबहुत्तन्भुवगमादो । एदमसुद्धसंग हणयवयणं । सेसं जहा सुद्धसंगहस्स वृत्तं ता वत्तव्वं, "विसेसाभावादो ।
एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ १३ ॥
जहा सुद्धा सुद्धसंगहण अस्सिदृण णाणावरणीयवेअणाए सामित्त परूवणा कदा तो सत्तणं कम्माणं वेयणाए पुध पुध सामित्तपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो । सद्दुजुसुदाणं णाणावरणीयवेयणा जीवस्स ॥ १४ ॥
किमहं जीव-वेयणाणं सदुजुसुदा बहुवयणं च्छंति ? ण एस दोसो, बहुत्ताभावाद । तं जहा -- सव्वं पि वत्थु एमसंखाविसिहं, अण्णहा तस्साभावप्यसंगादो । ण च एगत्तपडिग्गहिए वत्थुम्हि दुब्भावादीणं संभवो अत्थि, सीदुण्हाणं व तेसु सहाणवट्ठाकरना योग्य था । परन्तु वह है नहीं, अतएव उसका प्रयोग नहीं किया गया है ।
अब अशुद्ध संग्रह नयके विषय में स्वामित्वकी प्ररूपणा करनेके लिये आगे का सूत्र कहते हैंअथवा जीवोंके होती है ॥ १२ ॥
कारण कि संग्रहकी अपेक्षा नोजीव और जीव बहुत स्वीकार किये गये हैं । यह अशुद्धसंग्रह नयकी अपेक्षा कथन है । शेष प्ररूपणा जैसे शुद्ध संग्रह नयका आश्रय करके की गई है वैसे ही करना चाहिये, क्योंकि, इसमें उससे कोई विशेषता नहीं है ।
इसी प्रकार शेष सात कर्मोंके विषय में कथन करना चाहिये ॥ १३ ॥
जिस प्रकार शुद्ध और अशुद्ध संग्रह नयोंका आश्रय करके ज्ञानावरणीयकी वेदना के स्वामित्वकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मों की वंदना के स्वामित्व की प्ररूपणा पृथक्-पृथक् करनी चाहिये, क्योंकि उसमें कोई विशेषता नहीं है ।
शब्द और ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना जीवके होती है ॥ १४ ॥ शंका - शब्द और ऋजुसूत्र ये दोनों नय जीव व वेदना के बहुवचनको क्यों नहीं स्वीकार करते हैं ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहाँ बहुत्वकी सम्भावना नहीं है । वह इस प्रकार से - सभी वस्तु एक संख्या से सहित है, क्योंकि, इसके विना उसके अभावका प्रसंग आता है। एकत्वको स्वीकार करनेवाली वस्तुमें द्वित्वादिकी सम्भावना भी नहीं है, क्योंकि, उनमें शीत
१ ताप्रतौ 'ता' इति पाठः । २ मप्रतौ 'संगहा -' इति पाठः । ३ श्र श्रापत्योः 'एदमसुद्ध' इति पाठः । ४ प्रतौ 'अविसेसादो', आमतौ त्रुटितोऽत्र पाठः ।
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