Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ८, १३.] वेयणमहाहियारे वेयणपच्चयविहाणं बंधुवलंभादो। ण कोह-माण-माय-लोमेहि बझा, कम्मोदइल्लाणं तेसिमुदयविरहिदद्धाए तब्बंधुवलंभादो। ण णिदाणभक्खाण-कलह-पेसुण्ण-रइ-अरह-उवहि-णियदि-माण-मायमोस-मिच्छाणाण मिच्छदसणेहि, तेहि विणा वि सुहुमसपिराइयसंजदेसु तब्बंधुवलंभादो। यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिति न्यायात् । तम्हा णाणावरणीयवेयणा जोग-कसाएहि चेव होदि ति सिद्धं । वुत्तं च
जोगा पडि-पदेसे हिदि अणुभागे कसायदो कुणदि' ॥४॥ जदि एवं तो दव्याट्ठियणएसु पुविल्लेसु तीसु वि पाणादिवादादीणं पञ्चयत्तं कत्तो जुजदे ? ण, तेसु संतेसु णाणावरणीयपंधुवलंभादो। नावश्यं कारणाणि कार्यवन्ति भवन्ति, कुम्भमकुर्वत्यपि' कुम्भकारे कुम्भकारव्यवहारोपलम्भात् । ण च पर्यायभेदेन वस्तुनो मेदः, तद्व्यतिरिक्तपर्यायाभावात् सकललोकव्यवहारोच्छेदप्रसंगाच। न्यायश्चच्यते लोकव्यवहारप्रसिद्धयर्थम् , न तद्वहिर्भूतो न्यायः, तस्य न्यायाभासत्वात् । ततस्तत्र तेषां कारणत्वं युज्यत इति ।
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क्योंकि, उनके बिना भी अप्रमत्तसंयतादिकों में उसका बन्ध पाया जाता है। क्रोध, मान, माया व लोभसे भी उसका बन्ध नहीं होता, क्योंकि, कर्मके उदयसे होनेवाले उक्त क्रोधादिकोंके उदयसे रहित कालमें भी उसका बन्ध पाया जाता है। निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शन इनसे भी उसका बन्ध नहीं होता, क्योंकि, उनके बिना भी सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंमें उसका बन्ध पाया जाता है। जो जिसके होनेपर ही होता है और जिसके न होनेपर नहीं होता है वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। इसी कारण ज्ञानावरणीय वेदना योग और कषायसे ही होती है, यह सिद्ध होता है। कहा भी है
'योग प्रकृति व प्रदेशको तथा कषाय स्थिति व अनुभागको करती है ॥४॥
शंका-यदि ऐसा है तो पूर्वोक्त तीनों ही द्रव्यार्थिक नयोंकी अपेक्षा प्राणातिपातादिकोंको प्रत्यय बतलाना कैसे उचित है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उनके होनेपर ज्ञानावरणीयका बन्ध पाया जाता है। कारण कार्यवाले अवश्य हों, ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, घटको न करनेवाले भी कुम्भकार के 'कुम्भकार' शब्दका व्यवहार पाया जाता है। दूसरे पर्यायके भेदसे वस्तुका भेद नहीं होता है, क्योंकि, वस्तुसे भिन्न पर्यायका अभाव है, तथा इस प्रकारसे समस्त लोक व्यवहारके नष्ट होनेका भी प्रसंग आता है । न्यायकी चर्चा लोक व्यवहारकी प्रसिद्धिके लिये ही की जाती है। लोकव्यवहारके बहिर्गत न्याय नहीं होता है, किन्तु वह केवल न्यायाभास ही है। इसीलिये उक्त प्राणातिपातादिकोंको प्रत्यय बतलाना योग्य ही है।
१ जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागा कसायदो होति । गो० क० २५७ । २ प्रतिषु 'कुम्भमकुम्भयत्यपि इति पाठः।
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