Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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क्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ८, १२
(उज्जुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा जोगपञ्चए पयडिपदेसग्गं ॥ १२ ॥ )
पडदेस जादणाणावरणीयवेयणा जोगपच्चए जोगपच्चएण होदि, पर्याडपदेसग्गमिदि किरियाविसेसणत्तेण अन्भुवगदत्तादो। ण च जोगवड्डि-हाणीयो मोत्तूण अण्णेहिंतो णाणावरणीयपदेसग्गस्स वड्डि हाणि' वा पेच्छामो । तम्हा णाणावरणीयपदेसग्गवेयणा जोगपश्च्चएण होदु णाम, ण पयडिवेयणाजोगपच्चएण होदि; तत्तो तिस्से वड्डिहाणीमवलंभादोत्ति भणिदे - ण, जोगेण विणा पाणावरणीयपयडीए पादुब्भावादंसणादो जेण विणा जं नियमेण गोवलब्भदे तं तस्स कज्जमियरं च कारणमिदि सयलणइयाइय अजणप्पसिद्धं । तम्हा पदेसग्गवेयणा व पयडिवेयणा वि जोगपच्चएणे ति सिद्धं ।
२८८ ]
कसायपञ्चए हिदि- अणुभागवेयणा ॥ १३ ॥
णाणावरणीय द्विदिवेषणा अणुभागवेयणा च कसायपच्चरण होदि, कसायवड्डिहाणीहिंतो हिदि-अणुभागाणं वड्डि- हाणिदंसणादो। ण पाणादिवाद-मुसावादादत्तादाणमेहुण परिग्गह-रादिभोयणपच्चर णाणावरणीयं बज्झदि, तेण त्रिणा वि अप्पमत्तसजदा दिसु ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना योगप्रत्ययसे प्रकृति व प्रदेशाग्ररूप होती है ॥ १२ ॥
प्रकृति व प्रदेशाग्र स्वरूपसे उत्पन्न ज्ञानावरणीयकी वेदना योगप्रत्ययके विषयमें अर्थात् योग प्रत्यय से होती है, क्योंकि, 'पयडि-पदेसग्गं' इस पदको सूत्र में क्रियाविशेषण रूप स्वीकार किया गया है ।
शंका- चूंकि योगों की वृद्धि अथवा हानिको छोड़कर अन्य कारणोंसे ज्ञानावरणीयके प्रदेश की हानि अथवा वृद्धि नहीं देखी जाती है, अतएव ज्ञानावरणीयकी प्रदेशाप्रवेदना भले ही योग प्रत्यय से हो; परन्तु उसकी प्रकृतिवेदना योग प्रत्यय से नहीं हो सकती, क्योंकि, उससे इसकी प्रकृति वेदनाकी वृद्धि व हानि नहीं पायी जाती है।
समाधान- इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि ऐसा नहीं है, क्योंकि, योगके विना ज्ञानावरणीयकी प्रकृतिवेदनाका प्रादुर्भाव नहीं देखा जाता। जिसके बिना जो नियमसे नहीं पाया जाता है वह उसका कार्य व दूसरा कारण होता है, ऐसा समस्त नैयायिक जनोंमें प्रसिद्ध है । इस कारण प्रदेशाप्रवेदना के समान प्रकृतिवेदना भी योग प्रत्ययसे होती है, यह सिद्ध है । कषाय प्रत्ययसे स्थिति व अनुभाग वेदना होती है ।। १३ ।।
ज्ञानावरणीय की स्थितिवेदना और अनुभागवेदना कषायसे होती है, क्योंकि, कषायकी वृद्धि और हानिसे स्थिति व अनुभागकी वृद्धि व हानि देखी जाती है । प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन प्रत्ययोंसे ज्ञानावरणीयका बन्ध नहीं होता है,
१ प्रतिषु ' वड्डिहाणि' इति पाठः । २ प्रतिषु 'जोगेण वि णाणा-' इति पाठः । ३ ताप्रतौ 'पादुब्भावा (व)' दंसणादो' इति पाठः । ४ श्रप्रतौ 'पदेसग्गवेयणो व' ताप्रतौ 'पदेसग्गो - ( ग्ग ) वेयणो (णे )
व' इति पाठः ।
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