Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ८, १०.] वेषणमहाहियारे वेयणपञ्चविहाणं दिमूलो अणंतसंसारकारणो णिदाणपच्चो त्ति जाणावणटुं पुध सुत्तारंभो कदो। । अभक्खाण-कलह-पेसुण्ण-रइ-अरइ-उवहि-णियदि'-माण-माय मोसमिच्छणाण-मिच्छदंसण-पओअपच्चए ॥१०॥
क्रोध-मान-माया-लोभादिभिः परेष्वविद्यमानदोषोभावनमभ्याख्यानम् । क्रोधादिवशादसि-दंडासभ्यवचनादिभिः परसन्तापजननं कलहः । परेषां क्रोधादिना दोषोद्भावनं पैशुन्यम् । नप्त-पुत्र कलत्रादिषु रमणं रतिः । तत्प्रतिपक्षा अरतिः। उपेत्य क्रोधादयो धीयंते अस्मिन्निति उपधिः, क्रोधाद्युत्पत्तिनिवन्धनो बाह्यार्थ उपधिः । सोऽपि ज्ञानावरणीयबन्धनिबन्धनः, तेन विना कषायाभावतो बन्धाभावात् । निकृतिवेचना, मणि-सुवर्ण-रूप्याभासदानतो द्रव्यान्तरादानं निकृतिरित्यर्थः । मानं प्रस्थादिः हीनाधिकगावमापनः । सोऽपि कूटव्यवहारहेतुत्वाद् ज्ञानावरणीयस्य प्रत्ययः । मेयो यव-गोधू. मादिः । सोऽपि ज्ञानावरणीयस्य प्रत्ययः, मातुरसद्व्यवहारस्य निवन्धनत्वात् । कधं मेयस्य मायत्वम् ? नैष दोषः।।
___समाधान-मिथ्यात्व. क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह और प्रेम आदिके निमित्तसे होनेवाला निदान प्रत्यय अनन्त संसारका कारण है; यह बतलने के लिये पृथक सूत्रकी रचना की गई है।
__ अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, माया, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग, इन प्रत्ययोंसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥१०॥
____ क्रोध, मान, माया और लोभ आदिके कारण दूसरोंमें अविद्यमान दोषोंको प्रगट करना अभ्याख्यान कहा जाता है । क्रोधादिके वश होकर तलवार, लाठी और असभ्य वचनादिके द्वारा दूसरोंको सन्ताप उत्पन्न करना कलह कहलाता है। क्रोधादिके कारण दूसरोंके दोषोंको प्रगट करना पैशून्य है । नाती, पुत्र एवं स्त्री आदिकांमें रमण करनेका नाम रति हैं। इसकी प्रतिपक्षभूत अरति कही जाती है । 'उपेत्य क्रोधादयो धीयन्त अस्मिन् इति उपधिः' अर्थात् आकरके क्रोधादिक जहाँ पर पुष्ट होते हैं उसका नाम उपधि है, इस निरुक्तिके अनुसार क्रोधादि परिणामोंकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत बाह्य पदार्थको उपधि कहा गया है। वह भी ज्ञानावरणीयके बन्धका कारण है, क्योंकि, उसके बिना कषायरूप परिणामका अभाव होनेसे बन्ध नहीं हो सकता। निकृतिका अर्थ धोखा देना है, अभिप्राय यह कि नकली मणि सुवर्ण चांदी देकर द्रव्यान्तरको प्राप्त करना निकृति कही जाती है। हीनता व अधिकताको प्राप्त प्रस्थ (एक प्रकारका माप)
आदि मान कहलाते हैं । वे भी कूट अर्थात् असत्य व्यवहारके कारण होनेसे ज्ञानावरणीयके प्रत्यय हैं। मापने के योग्य जौ और गेहूँ आदि मेय कहे जाते हैं । वे भी ज्ञानावरणीयके प्रत्यय हैं, क्योंकि, वे मापनेवालेके असत्य व्यवहारके कारण हैं।।
शंका-मेयके स्थानमें माय शब्दका प्रयोग कैसे दिया गया ह .. १ अ-आप्रत्योः 'णयरदि' इति पाठः। २ अ-अाप्रत्योः 'माया', इति पाठः। ।
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