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१, २, ८, ४.] वेयणमहाहियारे वेयणपचयविहाणं
[૨૮૨ णिदो वट्टदे पाण-पाणिवियोयो वयणकलावो च। तम्हा तदो तेसिमभेदो। तेणेव कारण णाणावरणीयबंधस्स तेसिं पच्चयत्तं पि सिद्धं । एवंविहववहारो किमहं कीरदे १ सुहेण णाणावरणीयपञ्चयपडिबोहणटुं कलपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहटुं च । (अदत्तादाणपच्चए ॥४॥)
अदत्तस्स अदिण्णस्स आदाणं गहणं अदत्तादाणं' सो चेव पचओ अदत्तादाणपञ्चओ, तम्हि अदत्तादाणपच्चयविसए णाणावरणीयवेयणा होदि । एत्थ वि जेण 'आदीयदे अणेण आदीयद इदि आदाणं' तेण अदिण्णत्थो तग्गहणपरिणामो च अदत्तादाणं । ण च पाणादिवाद-मुसावाद-अदत्तादाणाणमंतरंगाणं कोधादिपच्चएसु अंतब्भावो, कधंचि
कार्यके उत्पादनमें समर्थ है उसे ही उत्पन्न करेगा, न कि अन्य अशक्य कार्योंको । अतएव उपयुक्त अवस्थाकी सम्भावना नहीं है ? इसके उत्तर में 'समर्थ कारणके द्वारा शक्य ही कार्य किया जाता है' यह चतुर्थ हेतु दिया गया है । अर्थात् कारणमें विद्यमान कार्यजनन रूप शक्ति यदि सर्व कायविषयक है तब तो उपर्युक्त अवस्था ज्योंकी त्यों बनी रहती है। परन्तु यदि वह शक्ति शक्य
टादि कार्यविषयक ही है तो भला अविद्यमान घटादि कार्यों में उक्त शक्तिकी सम्भावना ही कैसे की जा सकती है ? अतएव उक्त अव्यवस्थाके निवारणार्थ कार्यको 'सत्' ही स्वीकार करना चाहिये । (५) पाचौं हेतु 'कारणभाव' है। इसका अभिप्राय यह है कि कार्य चूंकि कारणात्मक ही है, उससे भिन्न नहीं है। अतएव सत् कारणसे अभिन्न कार्य कभी असत् नहीं हो सकता। इस प्रकार इन पाँच हेतुओंके द्वारा कार्यके 'सत्' सिद्ध हो जानेपर सत्तादिक धर्मोकी अपेक्षा कार्य अपने कारणसे स्वयमेव अभिन्न सिद्ध हो जाता है।
अथवा, 'कारणमें कार्य है। इस विवक्षासे भी कारणसे कार्य अभिन्न है। प्रकृतमें प्राणप्राणिवियोग और वचनकलाप चूंकि ज्ञानावरणीयबन्धके कारणभूत परिणामसे उत्पन्न होते हैं अतएव वे उससे अभिन्न हैं। इसी कारण वे ज्ञानावरणीयबन्धके प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं।
शंका-इस प्रकारका व्यवहार किसलिये किया जाता है ?
समाधान-सुखपूर्वक ज्ञानावरणीयके प्रत्ययोंका प्रतिबोध करानेके लिये तथा कार्यके प्रतिषेध द्वारा कारणका प्रतिषेध करनेके लिये भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है।
अदत्तादान प्रत्ययसे ज्ञानावरणीय वेदना होती है ॥ ४ ॥
अदत्त अर्थात् नहीं दिये गये पदार्थका आदान अर्थात् ग्रहण करना 'अदत्तादान' है। अदत्तादान ऐसा जो वह प्रत्यय अदत्तादानप्रत्यय, इस प्रकार यहाँ कर्मधारय समास है । उस अदत्तादान प्रत्ययके विषयमें ज्ञानावरणीय वेदना होती है। यहाँ भी चूँकि 'जिसके द्वारा ग्रहण किया जाय या जो ग्रहण किया जाय' इस प्रकार आदान शब्दकी निरुक्ति की गई है अतएव उससे अदत्त पदार्थ और उसके ग्रहण करनेका परिणाम दोनों ही अदत्तादान ठहरते हैं। प्राणातिपात, मृषावाद और अदत्तादान इन अन्तरंग प्रत्ययोंका क्रोधादिक प्रत्ययोंमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता,
'अदत्तादाणगहण', ताप्रतौ 'अदचादाणं [ गहणं ]' इति पाठः
ब. १२-३६
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