Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२८० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ८, ३. विसयस्स पाण-पाणि विओगस्स' कम्मबंधहेउत्तविरोहादो। ण च पाण-पाणि विप्रोगकारणजीवपरिणामो पाणादिवादो, तस्स राग-दोस-मोहपच्चएसु अंतब्भावेण पउणरुत्तियप्पसंगादो त्ति ? एस्थ परिहारो वुच्चदे-सव्वस्स कन्जकलावस्स कारणादो अभेदो सत्तादीहिंतो ति णए अवलंबिजमाणे कारणादो कन्जमभिण्णं, कजादो कारणं पि, असदकरणाद् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च । कारणेकार्यमस्तीति विवक्षातो वा कारणात्कार्यमभिन्न । णाणावरणीयबंधणिबंधणपरिणाम
प्रकार प्राणातिपात भी ज्ञानावरणीयका प्रत्यय नहीं होसकता,क्योंकि,अन्य जीवविषयक प्राण-प्राणिवियोगके कर्मबन्धमें कारण होनेका विरोध है। यदि कहा जाय कि प्राण व प्राणीके वियोगका कारणभूत जीवका परिणाम प्राणातिपात कहा जाता है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उसफा राग, द्वेष एवं मोह प्रत्ययों में अन्तर्भाव होनेसे पुनरुक्ति दोषका प्रसंग आता है।
. समाधान-उपर्युक्त शंकाका परिहार कहा जाता है । यथा-सत्ता आदिकी अपेक्षा सभी कार्यकलापका कारणसे अभेद है, इस नयका अवलम्बन करनेपर कारणसे कार्य अभिन्न है तथा कार्यसे कारण भी अभिन्न है, क्योंकि, असत् कार्य कभी किया नहीं जा सकता है, नियत उपादानकी अपेक्षाकी जाती है, किसी एक कारणसे सभी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते, समर्थ कारणके द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, तथा असत् कार्यके साथ कारणका सम्बन्ध भी नहीं बन सकता।
विशेषार्थ-यहाँ कार्यका कारणके साथ अभेद बतलानेके लिये निम्न पाँच हेतु दिये गये हैं-(१) यदि कारणके साथ सत्ताको अपेक्षा भी कार्यका अभेद न स्वीकार कारणके द्वारा असत् कार्य कभी किया नहीं जा सकेगा, जैसे-खरविषाणादि । अतएव कारणव्यापारके पूर्व भी कारणके समान कार्यको मी सत् ही स्वीकार करना चाहिये । इस प्रकार सत्ताकी अपेक्षा दोनों में कोई भेद नहीं रहता। (२) दूसरा हेतु 'उपादानग्रहण' दिया गया है। उपादानग्रहणका अर्थ उपादान कारणोंके साथ कार्यका सम्बन्ध है। अर्थात् कायसे सम्बद्ध होकर ही कारण उसका जनक हो सकता है, न कि उससे असम्बद्ध रहकर भी। और चूंकि कारणका सम्बन्ध असत् कार्यके साथ सम्भव नहीं है, अतएव कारणव्यापारसे पहिले भी कार्यको सत स्वीकार करना ही चाहिये (३) अब यहाँ शंका उपस्थित होती है कि कारण अपनेसे असंबद्ध कार्यको उत्पन्न क्यों नहीं करते हैं ? इसके समाधानमें 'सर्वसम्भवाभाव' रूप यह तीसरा हेतु दिया गया है। अभिप्राय यह है कि यदि कारण अपनेसे असम्बद्ध कार्यके उत्पादक हो सकते हैं तो जिस प्रकार मिट्टीसे घट उत्पन्न होता है उसी प्रकार उससे पट आदि अन्य कार्य भी उत्पन्न हो जाने चाहिये, क्योंकि, मिट्टीका जैसे पट आदिसे कोई सम्बन्ध नहीं है वैसे ही घटसे भी उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार सब कारणोंसे सभी कार्यों के उत्पन्न होने रूप जिस अव्यवस्थाका प्रसंग आता है उस अव्यवस्थाको टालनेके लिए मानना पड़ेगा कि घट मिट्टी में कारणव्यापार के पूर्व भी सत् ही था। वह केवल कारणव्यापारसे अभिव्यक्त किया जाता है । (४) पुनः शंका उपस्थित होती है कि असम्बद्ध रहकर भी कारण जिस
१ अ-श्राप्रत्योः 'विसयोगस्त तापतौ 'वियोगस्स' इति पाठः। २ प्रतिषु 'वियोग' इति पाठः। ३ असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच सत्कार्यम् ॥ सांख्यकारिका ६.।
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