Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२७८ ]
छ खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ८, २.
तस्स कम्मइयक्खंधस्स कम्म सरूवेण अपरिणदस्स जीवे समवेदस्स अणुवलंभादो । उवलंभे वा पत्तेयसरीरवग्गणाए द्वाणपरूवणाए कीरमाणाए ओरालिय- वेउचिय-तेजा-कम्मइयसरीराणि अस्सिदूष जहा परूवणा कदा एवं जीवसमवेदकम्मइयखंधे वि अस्सिदूण
परूवणा करेज्ज | ण च एवं तहाणुवलंभादो । ण विदिओ' वि पक्खो जुञ्जदे, जीवे समवेदा कम्मइयक्खंधाणं णाणावरणीय सरूवेण परिणमणविरोहादो । अविरोहे वा जीव संसारावस्थाए अमुत्तो होज, मुत्तदव्वे हि संबंधाभावादो। ण च एवं, जीवगमणे सरीरस्स संबंधाभावेण 'अगमणप्पसंगादो, जीवादी पुघभूदं सरीरमिदि अणुहवाभावादो च । ण पच्छा दोण्णं पि संबंधो, कारणे अक्कमे संते कजस्स कमुप्पत्तिविरोहादोत्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे - जीवसमवेदकाले चैव कम्मइयक्खंधा ण णाणावरणीय सरूवेण परिणमंति [त्ति ] ण पुव्वुत्तदोसा दुकंति । कधमेगो पाणादिवादो कमेण दोण्णं कजाणं संपादओ ? ण, एयादो मोग्गरादो घादावयवविभागड्डाणसं चालणक्खे तंतरवत्ति खप्पर काम कमेणुष्पत्तिदंसणादो । कधमेगो पाणादिवादो अणंते कम्मइय
और तैजस शरीर संज्ञावाले नोकर्मसे भिन्न और कर्मस्वरूपसे अपरिणत हुआ कार्मण स्कन्ध जीव में समवेत नहीं पाया जाता । अथवा यदि पाया जाता है तो प्रत्येक शरीरकी वर्गणा के स्थानों की प्ररूपणा करते समय औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण शरीरका आश्रय करके जैसे प्ररूपणा की गई है, इस प्रकार जीव समवेत कार्मण स्कन्धोंका आश्रय करके भी स्थान प्ररूपणा करनी चाहिये थी । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वह पायी नहीं जाती । दूसरा पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि, जीवमें असमवेत कार्मण स्कन्धों के ज्ञानावरणीय स्वरूपसे परिणत होने का विरोध है । यदि विरोध न माना जाय तो संसार अवस्था में जीवको अमूर्त होना चाहिये, क्योंकि, मूर्त द्रव्योंसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि, जीवके गमन करनेपर शरीरका सम्बन्ध न रहनेसे उसके गमन न करनेका प्रसंग आता है। दूसरे, जीवसे शरीर पृथक है, ऐसा अनुभव भी नहीं होता । पीछे दोनोंका सम्बन्ध होता है, ऐसा भी सम्भव नहीं है; क्योंकि, कारण क्रम रहित होनेपर कार्यकी क्रमिक उत्पत्तिका विरोध है ?
समाधान- यहाँ उक्त शंकाका परिहार करते हैं । यथा - जीवसे समवेत होने के समय में कार्मण स्कन्ध ज्ञानावरणीय स्वरूपसे नहीं परिणमते हैं । अतएव पूर्वोक्त दोष यहाँ नहीं ढूँकते । शंका - प्राणातिपात रूप एक ही कारण युगपत् दो कार्यों का उत्पादक कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि एक मुद्गरसे घात, अवयवविभाग, स्थानसंचालन और क्षेत्रान्तरकी प्राप्तिरूप खप्पर कार्योंकी युगपत् उत्पत्ति देखी जाती है ।
शंका- प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनन्त कार्मण स्कन्धों को एक साथ ज्ञानावरणीय
१ - प्रत्योः 'वीइंदिश्रो' ताप्रती 'वीइज्जो' इति पाठः । २ ताप्रतौ नोपलभ्यते पदमिदम् । ३ प्रतौ ' श्रागमण' इति पाठः । ४ अ श्रापत्योः 'कम्मइयक्खधाण' ताप्रतौ 'कम्मइयक्खंधा [ णं ]' इति पाठः । ५ - प्रत्योः 'क्खेत्तंतरावेति' इति पाठः ।
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