Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २,७,२६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२२१ णाणि । कुदो ? साभावियादो। तेण एदेहितो घादट्ठाणाणि चेव उप्पज्जंति, ण बंधट्टाणाणि त्ति सिद्धं ।
संतवाणाणि अट्ठक-उध्वंकाणं विच्चाले चेव होंति, चत्तारि-पंच-छ-सत्तंकाणं विचालेसु ण होति ति कधं णव्वदे ? "उक्कस्सए अणुभागबंधट्टाणे एगबंधट्टाणं । तं चेव संतकम्मट्ठाणं । दुचरिमे अणुभागबंधट्टाणे एवमेव । एवं पच्छाणुपुव्वीए णेयव्वं जाव पढमअणंतगुणहीणं बंधट्ठाणमपत्तं ति । पुव्वाणुपुबीए गणिज्जमाणे जं चरिममणंतगुणं बंधढाणं तस्स हेट्टा अणंतरमणंतगुणहीणं । एदम्हि अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । ताणि चेव संतमकम्मट्ठाणाणि" एदम्हादो पाहुडसुत्तादो' । चरिममुव्वकं घादयमाणो किमट्ठकपढमफद्दयादो हेट्टा अणंतगुणहीणं करेदि आहो ण करेदि ति ? अणंतगुणहीणं करेदि । कुदो णव्वदे ? आइरियोवदेसादो । कंदयघादेण अणुभागे घादिदे वि सरिसा पदेसरचणा किण्ण जायदे ? होदु णाम, इच्छिज्जमाणत्तादो। ण च विसरिसेसु भागहारेसु सरिसविहज्जमाणरासीदो लब्भमाणफलस्स
इसलिये इनसे घातस्थान ही उत्पन्न होते हैं, बन्धस्थान नहीं उत्पन्न होते; यह सिद्ध है।
शंका-सत्त्वस्थान अष्टांक और ऊर्वकके बीचमें ही होते हैं, चतुरंक, पंचांक, षडंक और सप्तांकके बीचमें नहीं होते हैं; यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-वह “उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थानमें एक बन्धस्थान है। वही सत्कर्मस्थान है। द्विचरम अनुभागबन्धस्थानमें इसी प्रकार क्रम है । इसी प्रकार पश्चादानुपूर्वीसे तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि प्रथम अनन्तगुणहीन बन्धस्थान प्राप्त नहीं होता । पूर्वानुपूर्वी से गणना करनेपर जो अन्तिम अनन्तगुण बन्धस्थान है उसके नीचे अनन्तर स्थान अनन्तगुण हीन है। इस बीचमें असंख्यात लोक प्रमाण घातस्थान हैं। वे ही सत्कर्मस्थान हैं।" इस प्राभृतसूत्रसे जाना जाता है।
शंका-अन्तिम ऊर्वकको घातनेवाला जीव क्या अष्टांकके प्रथम स्पर्द्धकसे नीचे अनन्तगुणहीन करता है या नहीं करता है?
समाधान-वह अनन्तगुणहीन करता है। शंका-वह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-वह आचार्यके उपदेशसे जाना जाता है। शंका-काण्डकघातसे अनुभागको घातनेपर भी समान प्रदेशरचना क्यों नहीं होती है ?
समाधान-यदि वह समान होती है तो हो, क्योंकि, हमें वह अभीष्ट है। किन्तु विसहस भागहारोंमें सदृश विभज्यमान राशिसे प्राप्त होनेवाले फलको सदृशता घटित नहीं हैं, क्योंकि,
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१ अाप्रतौ 'संतकम्माणि' इति पाठः । २ उक्कस्सए अणुभागबंधहाणे एग संतकम्मं । तमेगं संतकम्मठाणं । दुचरिमे एवमेव । एवं ताव जाव पच्छाणुपुवीए पढममणंतगुणहीणबंधहाणमपत्तं ति ।...तस्स हेहा अणंतरमणतगुणहीणम्मि एदम्मि अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि ।...ताणि चेव संतकम्महाणाणि इति पाठः।
जयध अ० पत्र ३७० ।
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