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२४४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २,७, २७०. णिरंतरहाणजीवपमाणाणुगमेण जीवेहि अविरहिदट्टाणाणि एको वा दो वा तिण्णि वा उकस्सेण आवलियांए असंखेज्जदिभागो २७०
जीवसहिदाणि हाणाणि एग-दो-तिण्णिहाणाणि आदि कादण जाव उकस्सेण णिरंतरं जीवसहिदहाणाणि आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्ताणि चेव होति । संपहि कसायपाहुडे उवजोगो णाम अत्थाहियारो। तत्थ कसाउदयहाणणि असंखेज्जलोगमेताणि' । तेसु वट्टमाणकाले जत्तिया तसा संति' तत्तियमेत्ताणि आवुण्णाणि त्ति कसायपाहुडसुत्तेण भणिदं । तदो एसो वेयणसुत्तत्थो ण घडदे ? ण, सुत्तस्स जिणवयणविणिग्गयस्स अविरुद्धाइरियपरंपराए आगयस्स अप्पमाणत्तविरोहादो। कधं पुण दोण्णं सुत्ताणमविरोहो।? वुचदे-एत्थ वेयणाए जीवसहिदाणि हाणाणि णिरंतरं जदि होंति तो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि चेव होति त्ति भणिदं। कसायपाहुडे पुणो' जीवसहिदणिरंतरहा'णपमाणपरूवणा ण कदा, किं तु वट्टमाणकाले णिरंतराणिरंतरविसे. सणेण विणा जीवसहिदहाणाणं पमाणपरूवणा कदा। तेण जीवसहिदहाणाणि तत्थ
निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगमसे जीवोंसे सहित स्थान एक, अथवा दो, अथवा तीन, इस प्रकार उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग तक होते हैं ।। २७० ॥
जीव सहित स्थान एक, दो व तीन स्थानोंसे लेकर उत्कृष्टसे निरन्तर जीव सहित स्थान आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं।
शंका-कसायपाहुडमें उपयोग नामका अर्थाधिकार है। उसमें कषायोदयस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं। उनमें वतमानकालमें जितने त्रस जीव हैं उतने मात्र पूर्ण हैं, ऐसा कसायपाहुडसूत्रके द्वारा बतलाया गया है । इसलिये यह वेदनासूत्रका अर्थ घटित नहीं होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, जिन भगवान् के मुखसे निकले और अविरुद्ध आचार्यपरम्परासे हुए सूत्रके अप्रमाण होनेका विरोध है। शंका-फिर इन दोनों सूत्रोंमें अविरोध कैसे होगा?
समाधान-इसका उत्तर कहते हैं। यहाँ वेदना अधिकारमें, जाव सहित स्थान निरन्तर यदि होते हैं तो आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं, ऐसा कहा गया है। परन्तु कसायपाहुडमें जीव सहित निरन्तर स्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा नहीं की गई है, किन्तु वहाँ वर्तमानकालमें निरन्तर व सान्तर विशेषणके बिना जीव सहित स्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है। इसलिए जीव सहित स्थान वहाँ प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। उतने होकरके भी त्रस
१ संपहि एवं पुच्छाविसईकयत्थस्स परूवणं कुणमाणो तत्थ ताव कसायुदयहाणाणमियत्तावहारणहमुवरिमं सुत्ताह-कसाउदयहाणाणि असंत्रेजा लोगा। जयध. अ. प. ६१६.। २ ताप्रतौ 'होति' इति पाठः । ३ तत्य ताव वट्टमाणसमयम्मि तसजीवहिं केत्तियाणि हाणाणि अावूरिदाणि केत्तियाणि च सुण्णहाणाणि त्ति एदस्स णिद्धारणहमुवरिमसुत्तामोइण्णं-तेसु जत्तिया तसा तत्तियमेत्ताणि श्रावुण्णाणि । जयध. अ. प. ६१६.। ४ श्राप्रतौ कसायपाहुडे सुणो', ताप्रती कसायपपाहुडे सु (पु)णो' इति पाठः। ५ अ-श्राप्रत्योः 'णिरंतरद्धाण' इति पाठः।
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