Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२५०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, २७६. एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव जवमज्झं ॥ २७६ ॥
एदेण कमेण असंखेजलोगमेत्तद्धाणं गंतूण एगेगं जीवं वड्वाविय णेदव्वं जाव जवमझ ति । सव्वत्थ एगेगो चेव जीवो वड्ढदि त्ति कधं णव्वंदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियोवदेसादो । जेण गुणहाणिं पडि पक्खेवभागहारो दुगुणदुगुणक्कमेण जाव जवमझ ताब गच्छदि तेण पक्खेवो अवहिदो एगजीवमेत्तो चेव होदि त्ति आइरिया भणंति । एदमाइरियवयणं पमाणं कादण एगजीवो वड्डदि त्ति सद्दहेदव्य) - संपहि अणंतरोवणिधाए भावत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा-जहण्णट्टाणजीवपमाणं विरलेदण तेसु चेव जीवेसु समखंडं कादण दिण्णेसु एकेकस्स रूवस्स एगेगजीवपमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगजीवं घेत्तण जहण्णए टाणे जीवा थोवा । विदिए जीवा तत्तिया चेव । एवमसंखेजलोगमेत्तट्ठाणेसु जीवा तत्तिया चेव होति । तदो उवरिमाणंतरट्ठाणे एगो जीवी पक्खिविदव्वो। पुणो वि असंखेजलोगमेत्तट्ठाणेसु जीवा तत्तिया चेव ! तदो विरलणाए विदियरूवधरिदजीवो तदणंतरउवरिमट्ठाणजीवेसु पक्खिविदव्यो । तदो एदस्स हाणस्स जीवेहि समाणाणि होदूण असंखेजलोगमेत्तट्ठाणाणि गच्छति । तदो अणंतरउवरिमट्ठाणे तदियो जीवो वड्ढावेदव्वो। एवमणेण विहाणेण पुन्वुत्तद्धाणं धुवं कादूण एगेगजीवं वड्डाविय णेयव्वं जाव जहण्णट्ठाणजीवेहितो दुगुणजीवा ति । पढम
इस प्रकार यवमध्य तक जीव विशेष अधिक विशेष अधिक हैं ॥ २७१ ॥
इस क्रमसे असंख्यातलोक मात्र अध्वान जाकर एक एक जीव बढ़ाकर यवमध्य तक ले जाना चाहिये।
शंका-सर्वत्र एक एक ही जीव बढ़ता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-यह आचार्यके सूत्रविरोधसे रहित उपदेशसे जाना जाता है। चूंकि प्रत्येक गुणहानिमें यवमध्य तक प्रक्षेपभागहार दुगुणे दुगुणे क्रमसे जाता है, इसलिये प्रक्षेप अवस्थित होता हुआ एक जीव प्रमाण ही होता है; ऐसा आचार्य कहते हैं। प्राचार्यों के इस वचनको प्रमाण करके एक जीव बढ़ता है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिये।
अब अनन्तरोपनिधाके भावार्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य स्थानके जीवोंके प्रमाणका विरलनकर उन्हीं जीवोंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक जीवका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः यहाँ एक जीवको ग्रहणकर जघन्य स्थानमें जीव स्तोक हैं। द्वितीय स्थानमें जीव उतने ही हैं। इस प्रकार असंख्यातलोक मात्र स्थानोंमें जीव उतने मात्र हो होते हैं। उनसे आगेके अनन्तर स्थानमें एक जीवका प्रक्षेप करना चाहिये। फिर भी असंख्यात लोक मात्र स्थानोंमें जीव उतने मात्र ही होते हैं। तत्पश्चात विरलन राशिके द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त एक जीवका तदनन्तर आगेके स्थान सम्बन्धी जीवों में प्रक्षेप करना चाहिये। फिर इस स्थानके जीवोंसे समान होकर असंख्यातलोक मात्र स्थान जाते हैं। तत्पश्चात् अनन्तर आगेके स्थानमें तृतीय जीवको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार इस विधिसे पूर्वोक्त अध्वानको ध्रुव करके एक एक जीवको बढ़ाकर जघन्य स्थानके जीबोंसे दूने जीवोंके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये।
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