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४, २, ७, २८१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया [ २५७ गदं ति । ताधे हेटिमविरलणाए अद्धमेत्तरूबाणमेगरूवधरिदेगजीवं घेत्तण तदित्यहाणजीवेसु अवणिदे तदणंतरउपरिमट्ठाणजीवपमाणं होदि ।।
किमहंजवमझादो उवरिमगुणहाणीसु गुणहाणिं पडि दुगुण-दुगुणमद्धाणं गंतूण एगेगजीवपरिहाणी कीरदे ? जवमझहेट्ठिमगुणहाणीणं च उवरिमगुणहाणीणं पि सरिसत्तपदुप्पायणटुं। पुणो एत्तियं चेव अद्धाणं गंतूण विदियजीवो परिहायदि । एवमेदमद्धाणं धुवं कादण एगजीवपरिहाणिं करिय ताव णेयव्वं जाव हेटिमविरलणाए चदुब्भागमेत्तजीवा परिहीणा त्ति । ताधे तदित्थट्ठाणजीवा जवमझजीवाणं चदुब्भागमेत्ता। ते च आवलियाए असंखेजदिभागो। तदुवरिमाणे जीवा तत्तिया चेव । तदियट्ठाणे जीवा तत्तिया चेव । एवं सरिसा होदूण ताव गच्छंति जाव विदियगुणहाणीए एगरूवपरिहाणिट्ठाणादो दुगुणमद्धाणं गदं ति । ताधे हेहिमविरलणाए चदुब्भागमेत्तरूवाणमेगरूवधरिदेगजीवं घेत्तण तदित्थट्ठाणजीवेसु अवणिदे' उवरिमट्ठाणजीवपमाणं होदि । तत्थ जीवा आवलियाए असंखेज्जदिभागो।
तदो अवविदसरूवेण पुबिल्ल मद्धाणं गंतूण विदियजीवो परिहायदि । एवमवट्ठिदमद्धाणं गंतूण एगेगजीवपरिहाणिं करिय ताव णेदव्वं जाव हेट्टिमविरलणाए अट्ठमभा
प्रमाण अंकोंमेंसे एक अंकके प्रति प्राप्त एक जीवको ग्रहण करके उसे वहांके स्थानसम्बन्धी जीवोंमेंसे कम कर देनेपर तदनन्तर आगेके स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है।
शंका-यवमध्यसे ऊपरकी गुणहानियोंमेंसे प्रत्येक गुणहानिमें दूना दूना अध्वान जाकर एक एक जीवकी हानि किसलिये की जाती है ?
समाधान-यवमध्यसे नीचेकी गुणहानियों और ऊपरकी गुणहानियोंकी भी सहशता बतलानेके लिये एक एक जीवकी हानि की जाती है।
फिर इतना ही अध्वान जाकर द्वितीय जीवकी हानि होती है। इस प्रकारसे इस अध्वानको ध्रुव करके एक जीवकी हानि कर अधस्तन विरलन राशिके चतुर्थ भाग प्रमाण जीवोंकी हानि होने तक ले जाना चाहिये। उस समय वहांके स्थान सम्बन्धी जीव यवमध्य जीवोंके चतर्थ भाग प्रमाण होते हैं और वे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं। उससे ऊपरके स्थानमें जीव उतने ही होते हैं । तृतीय स्थानमें जीव उतने ही होते हैं । इस प्रकार सदृश होकर वे तब तक जाते हैं जब तक कि द्वितीय गुणहानिके एक अंककी हानि युक्त स्थानसे दूना अध्वान नहीं बीत जाता। तब अधस्तन विरलनके चतुर्थ भाग प्रमाण अंकों में से एक अंकके प्रति प्राप्त एक जीवको प्रहण कर उसे वहां के स्थान सम्बन्धी जीवोंमेंसे कम करनेपर अग्रिम स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है। वहाँ जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं।
पश्चात् अवस्थित स्वरूपसे पूर्वोक्त अध्वान जाकर दूसरे जीवकी हानि होती है। इस प्रकारसे अवस्थित अध्वान जाकर एक एक जीवकी हानि करके अधस्तन विरलनके आठवें भाग
१ मप्रतौ 'अवणि देसु' इति पाठः । छ. १२-३३
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