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४, २, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२२५ ज्जंति, णाहियाणि, कारणेण विणा कज्जुप्पत्ति विरोहादो। संतकम्मट्ठाणाणं कारणं छविहवड्डीए वड्ढिदधादपरिणामा । तेहिंतो परिणाममेत्ताणि चेव संतकम्मट्ठाणाणि उप्पज्जंति । अणंतभागवड्डि-असंखेज्जभागवड्डि-संखेज्जभागवड्डि-संखेजगुणवड्डि-असंखेजगुणवड्डि-अणंतगुणवड्डीहि एगछट्ठाणं होदि। एरिसाणि असंखेज्जलोगमेत्तछट्टाणाणि । अण्णेगं रूवूणछट्ठाणं च जदि बि अहंक-उव्यंकाणं विञ्चाले उप्पण्णं तो वि अहंकजहण्णफद्दयं ण पावेंति, संतकम्महाणे सव्वजीवरासिगुणगाराभावादो सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तगुणगारेसु असंखेज्जलोगमेत्तेसु संवग्गिदेसु वि सव्वजीवरासिपमाणाणुवलंभादो। एत्थ अप्पप्पणो वड्डिपक्खेवाणं पिसुलापिसुलादीणं' पिसुलाणं च पमाणाणयणे भागहारुप्पायणविहाणे वड्डिपरिक्खाए च अविभागपडिच्छेदपरूवणाए हाणपरूवणाए कंदयपरूवणाए ओज-जुम्मपरूवणाए छडाणपरूवणाए हेहाहाणपरूवणाए पञ्जवसाणपरूवणाए अप्पाबहुवपरूवणाए च अणुभागबंधट्ठाणवरूवणाभंगो। णरि सव्वत्थ सबजीवरासी भागहारो गुणगारो वा ण होदि त्ति अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो चेव गुणगारो भागहारो च होदि । के वि आइरिया संतढाणाणं सव्वजीवरासी गुणगारो ण होदि, अहंक-उव्वंकाणं विच्चालेसु चेव संतकम्मट्ठाणाणि होति ति वक्खाणवयणेण सह विरोहादो । किंतु भागहारो सयजीवरासी चेव होदि, विरोहाभावादो ति भणंति । परिणामेसु वि ऐसो
बिना कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है। सत्त्वस्थानोंका कारण छह प्रकारकी वृद्धिके द्वारा वृद्धिंगत घातपरिणाम हैं। उनसे परिणामोंके बराबर ही सत्त्वस्थान उत्पन्न होते हैं। अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि इनके द्वारा एक षट्स्थान होता है। ऐसे असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान होते हैं । एक अंकसे हीन अन्य एक षट्स्थान यद्यपि अष्टांक और अवकके मध्यमें उत्पन्न हुआ है तो भी अष्टांक जघन्य स्पर्द्धकको नहीं पाते हैं, क्योंकि सत्कर्मस्थानमें सब जीवराशि गुणकार नहीं है। इसका भी कारण यह है कि असंख्यात लोकप्रमाण सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र गुणकारोंको संवर्गित करनेपर भी सब जीव. राशिका प्रमाण नहीं पाया जाता है। यहाँपर अपने अपने वृद्धिप्रक्षेपों पिशुलापिशुलादिकों और पिशुलोंके प्रमाणके लाने में, भागहारके उत्पादनविधानमें, और वृद्धिपरीक्षामें अविभागप्रतिच्छेद प्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, काण्डकप्ररूपणा, ओज-युग्मप्ररूपणा, षस्थानप्ररूपणा, अधस्तनस्थान प्ररूपणा, पर्यवसानप्ररूपणा और अल्पबहुत्वप्ररूपणा ये सब अनुभागबन्धस्थानप्ररूपणाके समान हैं । विशेष इतना है कि सर्वत्र सब जीवराशि भागहार अथवा गुणकार नहीं होता है। किन्तु अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र ही गुणकार अथवा भागहार होता है।
कितने ही आचार्य कहते हैं कि सत्त्वस्थानोंका गुणकार सब जीवराशि नहीं होता है, क्योंकि वैसा होनेपर अष्टांक और ऊर्वकके अन्तरालोंमें ही सत्त्वस्थान होते हैं इस व्याख्यानके साथ विरोध आता है। किन्तु भागहार सब जीवराशि ही होता है, क्योंकि, उसमें कोई विरोध
१ अ-ताप्रत्योः 'पिसुलापिसुलादीणं च' इति पाठः । छ. १२-२६.
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