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४, २, ७, २६७, ]
वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया
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चियाणाणि उप्पण्णाणि । पुणो एदेसिं ट्ठाणाणं चरिमअहंकप्पहुडि जाव पढमअके त्ति ताव एदेसिमकुव्वंकाणं अंतरेस असंखेज्जलोगमेत्ताणि हृदहदसमुप्पत्तियट्टणाणि उपज्जति । पुणो हे ओदरिदूण बंधसमुप्पत्तियतिचरिमट्ठकुब्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियछद्वाणाणि अत्थि । पुणो एदेसिं द्वाणाणं असंखेज्जलोगमेत्तअटुंकुच्वंकंतरे असंखेज्ज लोग मे तहद हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि रूवूणछट्ठाण सहिदाणि उप्पज्जति । एवं बंधसमुप्पत्तियचदुचरिम-पंचचरिमादिअहंकंतरेसु' ट्ठिदाणं पच्छाणुपुवीए जाणिदृण दव्वं जाव अपडिसिद्धपदम अट्ठेके ति । तदो बंधसमुप्पत्तियअप्पडिसिपढमकुव्वंकाणं विचाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि अस्थि, पुणो एदेसिं द्वाणाणं चरिमअहं कुव्वं काण मंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि हृदहदसमुप्पत्तियछड्डाणाणि छाणसहियाणि उप्पज्जंति । एवं पडिलोमेण जाणिदूण णेयव्वं जाव एदेसिं हदसमुपपत्तिणाणं पढमअट्ठेके ति । एसा ताव हृदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं एगा परिवाडी उत्ता होदि ।
संपहि हद हदसमुपपत्ति यद्वाणाणं विदियपरिवाडीए भण्णमाणाए बंधसमुप्पत्तियचरिमअर्द्धक-उच्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि अस्थि । पुणो एदेसिं ट्ठाणाणं चरिमअक उच्वंकाणं विच्चाले असंखेज्जलोगमेत्ताणि हृदहदसमुपचियaणाणि उप्पण्णाणि । पुणो एदेसिं हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं पढमपरिवाडीए समुप्पण्णाणं
अन्तिम अष्टांकसे लेकर प्रथम अष्टांक तक इन अष्टांक और ऊर्वक स्थानोंके अन्तरालों में असंख्यात लोक प्रमाण हतहृतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं । फिर नीचे उतर कर बन्धसमुत्पत्तिक त्रिचरम अष्टक और ऊर्वक स्थानोंके अन्तरालोंमें असंख्यात लोक प्रमाण हतसमुत्पत्तिकपद्स्थान होते हैं । पुनः इन स्थानोंके असंख्यात लोक प्रमाण अष्टांक व ऊर्वकके अन्तरालोंमें एक अंकसे कम षटूस्थान सहित असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार बन्धसमुत्पत्तिक चतुश्चरम व पंचचरम आदि अष्टांक ( व ऊर्वक) के अन्तरालों में स्थित उनको पश्चादानुपूर्वी से जानकर ले जाना चाहिये जब तक अप्रतिसिद्ध प्रथम अष्टांक नहीं प्राप्त होता । पश्चात् बन्धसमुत्पत्तिक अप्रतिसिद्ध प्रथम अष्टांक व ऊर्वक के अन्तराल में असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं । पुनः इन स्थानोंके अन्तिम अष्टांक और ऊर्वकके अन्तराल में एक कम षट्स्थान सहित असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार प्रतिलोमसे जानकर इन इतसमुत्पत्तिक षट्स्थानोंके अष्टांक तक ले जाना चाहिये। यह हतहतसमुत्पत्ति स्थानोंकी एक परिपाटी कही गई है ।
अब हतहृतसमुत्पत्तिक पदूस्थानोंकी द्वितीय परिपाटीकी प्ररूपणा में बन्धसमुत्पतिक अन्तिम अष्टक और ऊके मध्य में असंख्यात लोक प्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं। फिर इन स्थानोंके अन्तिम अष्टक और ऊर्वकके अन्तरालमें असंख्यात लोक प्रमाण हवहतसमुत्पत्तिक षट्स्थान उत्पन्न होते हैं । फिर प्रथम परिपाटीसे उत्पन्न इन हतसमुत्पत्तिक स्थानोंके अन्तिम अष्टांक और १ प्रतिषु ' - पंचचरिमा वि श्रद्वंकंतरेसु' इति पाठः ।
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