Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२४० छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[४, २, ७, २६७. रियाणं वयणं ण प्पमाणमिदि ण वोत्त जुत्तं, अविरुद्धविसेसणेण ओसारिदरागादिभावादो । ण च अविरुद्धाइरियपरंपरागदउवएसो एसो चप्पलो होदि, अव्ववत्थापत्तीदो।
णाणावरणीयस्स सव्वत्थोवाणि बंधसमुप्पत्तियट्ठाणाणि । हदसमुप्पत्तियहाणाणि असंखेज्जगुणाणि । गुणगारो असंखेज्जा लोगा। हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । एत्थ वि गुणगारो असंखेज्जा लोगा। एसा ताव णाणावरणीयस्स तिविहा हाणपरूवणा परूविदा । एवं सेससत्तण्णं पि कम्माणं तिविही हाणपरूवणा जाणिदण परवेदव्वा । णवरि आउअस्स परियत्तमाणमज्झिमपरिणामेण अपज्जत्तसंजुत्ततिरिक्खाउअजहण्णाणुभागे पबद्धे तमेगं बंधसमुप्पत्तियट्ठाणं । पुणो पक्खेवुत्तरे पबद्धे विदियबंधसमुप्पत्तियहाणं । आउअस्स जहण्णहाणप्पहुडि असंखेज्जलोगमेत्ताणि परिणामहाणाणि होति । जत्तियाणि परिणामट्ठाणाणि तत्तियाणि चेव अणुभागवंधसमुप्पत्तियहाणाणि । हदसमुप्पत्तिय-हदहदसमुप्पत्तियहाणपरूवणाए कीरमाणाए णाणावरणभंगो । एवमणुभाभागबंधज्झवसाणहाणपरूवणा णाम विदिया चूलिया समत्ता।
समाधान-वह अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है। यदि कहा जावे कि आचार्य चूंकि सराग होते हैं, अतएव उनके वचन प्रमाण नहीं हो सकते; सो ऐसा कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि, अविरुद्ध इस विशेषणसे रागादिभावका निराकरण किया गया है। कारण कि अविरुद्ध आचार्यपरम्परासे आया हुआ यह उपदेश मिथ्या नहीं हो सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर अव्यवस्थाका होना अनिवार्य है।
ज्ञानावरणीयके बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सबसे स्तोक हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यात. गुणे हैं। गुणकार असंख्यात लोक है। उनसे हतहतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यातगुणे हैं । यहाँपर भी गुणकार असंख्यात लोक है । यह ज्ञानावरणीयकी तीन प्रकारकी स्थानप्ररूपणा कही गई है। इसी प्रकारसे शेष सातों कर्मोकी तीन प्रकारकी स्थानप्ररूपणाको जानकर कहना चाहिये। विशेष इतना है कि आयुकर्मका परिवर्तमान मध्यम परिणामके द्वारा अपर्याप्त संयुक्त तिर्यश्च आयुके जघन्य अनुभागको बाँधनेपर वह एक बन्धसमुत्पत्तिकस्थान होता है । पुनः उसे एक प्रक्षेप अधिक बाँधनेपर द्वितीय बन्धसमुत्पत्तिकस्थान होता है। आयुके जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यात लोक प्रमाण परिणामस्थान होते हैं । जितने परिणामस्थान हैं उतने ही उसके अनुभागबन्धसमुत्पत्तिक स्थान हैं। हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक स्थानोंकी प्ररूपणाके करनेपर वह ज्ञानावरणके समान है। इस प्रकार अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानप्ररूपणा नामकी द्वितीय चूलिका समाप्त हुई।
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