Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२३९ विदियपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि उप्पादिय' ओदारेदव्वं जाव एदेसिं चेव पढमपरिवाडीए हदहदसमुप्पत्तियट्टाणपढमअट्ठकउव्वंकविच्चाले त्ति । पुणो एदेण कमेण एत्थुप्पण्णविदियपरिवाडिघादधादट्ठाणाणं जाणिदूण परूवणा कायव्वा । एवं कदे हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं विदियपरिवाडी समत्ता होदि ।
पुणो एदेण कमेण बंधसमुप्पत्तियचरिम-अटुंक-उव्यंकाणं विच्चाले संपहि विदियपरिवाडीए समुप्पण्णहदहदसमुप्पत्तियचरिमअट्ठकट्ठाणमादि कादूण पच्छाणुपुव्वीए ताव
ओदारेदव्वं जाव बंधसमुप्पत्तियअप्पडिसिद्धपढमअटुंक-उव्वंकविच्चाले [त्ति । ] विदियपरिवाडीए उप्पण्णहदहदसमुप्पत्तियअट्ठक-उव्वंकाणं विच्चालेसु पुणो वि असंखेज्जलोगमेत्तहदहदसमुप्पत्तियट्ठाणेसु तदियपरिवाडीए उप्पाइदेसु तदियहदहदसमुप्पत्तियहाणपरूवणा समत्ता होदि । एवं अणंतरुप्पण्णुप्पण्णअट्ठकुव्वंकाणं विच्चालेसु घादघादट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव संखेज्जाओ परिवाडीओ गदाओ ति । पुणो पच्छिमघादधादट्ठाणमटुंकुव्वंकविच्चालेसु धादघादट्ठाणाणि ण उप्पज्जंति, सव्वपच्छिमाणं घादघादट्ठाणाणं घादाभावादो।। संखेज्जासु घादपरिवाडीसु गदासु पुणो सव्वपच्छिमस्स अणुभागस्स घादिदसेसस्स घादो णत्थि ति कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। सरागाणमाइ
हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंको उत्पन्न कराकर इन्हीं प्रथम परिपाटीसे उत्पन्न हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंके प्रथम अष्टांक और ऊर्वकके अन्तराल तक उतारना चाहिये। पुनः इस क्रमसे यहाँ उत्पन्न द्वितीय परिपाटीके घातघात स्थानोंकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये। ऐसा करनेपर हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी द्वितीय परिपाटी समाप्त होती है।
- पश्चात् इस क्रमसे बन्धसमुत्पत्तिक अन्तिम अष्टांक और ऊर्वकके अन्तरालमें अभी द्वितीय परिपाटीसे उत्पन्न हतहतसमुत्पत्तिक अन्तिम अष्टांकस्थानसे लेकर पश्चादानुपूर्वीसे बन्धसमुत्पत्तिक अप्रतिषिद्ध प्रथम अष्टांक और ऊर्वकके अन्तराल तक उतारना चाहिये। द्वितीय परिपाटीसे उत्पन्न हतहतसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊवकके अन्तरालोंमें फिरसे भी असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंको तृतीय परिपाटीसे उत्पन्न करानेपर तृतीय हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी प्ररूपणा समाप्त होती है। इस प्रकार अनन्तर पुनः पुनः उत्पन्न हुए अष्टांक और ऊर्वकके अन्तरालोंमें घातघातस्थानोंको संख्यात परिपाटियाँ समाप्त होने तक उत्पन्न कराना चाहिये परन्तु पश्चिम घातघातस्थानोंके अष्टांक और ऊर्वङ्कके अन्तरालोंमें घातघातस्थान उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि, सर्वपश्चिम घातघातस्थानोंका घात सम्भव नहीं है।
शंका-संख्यात घातपरिपाटियोंके समाप्त होनेपर फिर घातनेसे शेष रहे सर्वपश्चिम अनुभागका घात नहीं होता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
१प्रतिषु 'अंतरेसु असंखेज्जलोगमेत्ताणि बिदियपरिवाडीए हदहदसमुप्प० असंखे० उप्पादिय' इति पाठः।
२ अप्रतौ 'असंखेजात्रो', अाप्रती 'संखेज्ज-संखेज्जाश्रो' इति पाठः। ३ताप्रतौ 'णत्थि ति। कुदो' इति पाठः।
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