Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ७, २६८.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे तदिया चूलिया
[२४२ तदिया चूलिया जीवसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि-एयहाणजीवपमाणाणुगमो णिरंतरहाणजीवपमाणाणुगमो सांतरट्टाणजीवपमाणाणुगमो णाणाजीवकालपमाणाणुगमो वडिपरूवणा जवमज्झपरूवणा फोसणपरूवणा अप्पाबहुए ति ॥ २६८॥
___जीवसमुदाहारो किमहमागदो ? पुव्वं परूविदबंधाणुभागहाणेसु असंखेज्जलोगमेत्तेसु जीवा किं सम्वेसुसरिसा आहो विसरिसा वा सरिसा [विसरसावा] ति पुच्छिदे एदेण सरूवेण तत्थ चिटंति त्ति जाणावण । अट्ठसु अणियोगद्दारेसु एयहाणजीवपमाणाणुगमो किमहमागदो ? एक्केक्कम्हि हाणे' जीवा जहणणेण एत्तिया होंति उकस्सेण वि एत्तिया त्ति जाणावणहूँ । णिरंतरहाणजीवपमाणाणुगमो किमट्ठमागदो ? णिरंतरजीवसहगदाणि अणुभागट्ठाणाणि जहण्णएण एत्तियाणि उक्कस्सेण वि एत्तियाणि वि होति ति जाणावणहूं। सांतरट्ठाणजीवपमाणुगमो किमट्ठागदो ? णिरंतरजीवविरहिदहाणाणि जहण्णेण एत्तियाणि
तीसरी चूलिका जीवसमुदाहार इस अधिकारमें ये आठ अनुयोगद्वार हैं--एकस्थानजीवप्रमाणानुगम, निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, नानाजीवकालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ॥२६८॥
शंका-जीवसमुदाहार किसलिये आया है ?
समाधान-पहिले जिन असंख्यात लोक प्रमाण बन्धानुभागस्थानोंकी प्ररूपणा की गई है सब स्थानों में जीव क्या सदृश होते हैं, विसदृश होते हैं, अथवा सदृश [विसहश होते हैं। ऐसा पूछे जानेपर वे वहाँ इस स्वरूपसे स्थित होते हैं, यह बतलानेके लिये जीवसमुदाहार यहाँ प्राप्त हुआ है।
शंका-आठ अनुयोगद्वारोंमें एकस्थानजीवप्रमाणानुगम किसलिये आया है ?
समाधान-एक एक स्थानमें जीव जघन्यसे इतने होते हैं, और उत्कृष्टसे इतने होते हैं; इस बातको बतलानेके लिये उपयुक्त अनुगम प्राप्त हुआ है।
शंका-निरन्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम किसलिये आया है ?
समाधान-निरन्तर जीवोंसे सहित अनुभागस्थान जघन्यसे इतने और उत्कृष्टरूप भी इतने ही होते हैं, इस बातके ज्ञापनार्थ उक्त अनुयोगद्वार प्राप्त हुआ है।
शंका-सान्तरस्थानजीवप्रमाणुगम किसलिये भाया है ? समाधान-निरन्तर जीवोंसे रहित स्थान जघन्यसे इतने और उत्कृष्टरूपसे भी इतनेही होते
१ अ-आप्रत्योः 'हाणेण', ताप्रतौ 'हाणे [ण ]' इति पाठः । छ. १२-३१.
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