Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२३६] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, २६७. तत्तो अणंतरहेडिमअसंखेजभागब्भहियट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि । जम्हि कंदए संखेजभागभहियं द्वाणं जहणं होदि तत्तो हेहिमपंतीए संखेजभागब्भहियाणि हाणाणि पुणरुताणि । एवं सव्वत्थ वत्तव्वं । एत्थ पुणरुत्ताणि अवणिय अपुणरुत्ताणि घेत्तव्वा ।
___ एदेण बीजपदेण' दुचरिम-तिचरिम-चदुचरिमादिअट्ठक-उव्वंकाणं विच्चालेसु हदहदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव एदेसि हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणं पढमअटुंके त्ति । एत्थ जहण्णबंधहाणप्पहुडि जहा संखेजटुंकुव्वंकाणं अंतरेसु घादट्ठाणाणि पडिसिद्वाणि तथा एदेसि पि घादट्ठाणाणं हेहा संखेज्जटुंकुव्वंकाणंतरेसु घादघादहाणाणं पडिसेहो किण्ण कारदे ? ण, सुत्ताणमाइरियवयणाणं च पडिसेहपडिबद्धाणमणुवलंभादो । विधोए विणा कधं सव्वत्थर्सेकुव्वंकंतरेसु धादघादपरूवणा कीरदे ? ण एत्थ अम्हाणमाग्गहो' सव्वटुंकुव्वंकट्ठाणंतरेसु घादधादट्ठाणाणि होति चेवे त्ति । किंतु विहि-पडिसेहो णत्थि त्ति जाणावणटुं परविदं । एवं कदे एककहदसमुप्पत्तियअट्ठकट्ठाणस्स हेट्ठा असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियहाणाणि उप्पण्णाणि होति । पुणो पच्छाणुपुव्वीए ओदरिदृण बंधसमुप्पत्तियदुचरिमअट्ठक-उव्वंकाणमंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुप्पअसंख्यातवें भागसे अधिक स्थान पुनरुक्त हैं, और जिस काण्डकमें संख्यातवें भागसे अधिक स्थान जघन्य होता है उससे अधस्तन पंक्तिके संख्यातवें भागसे अधिक स्थान पुनरुक्त है, ऐसा सब जगह कथन करना चाहिये । यहाँ पुनरुक्त स्थानोंका अपनयन करके अपुनरुक्त स्थानोंको ग्रहण करना चाहिये।
इस बीज पदके द्वारा इन हतसमुत्पत्तिक स्थानोंके प्रथम अष्टांक तक द्विचरम, त्रिचरम व चतुश्चरम आदि अष्टांक एवं ऊवक स्थानोंके अन्तरालोंमें हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये।
शंका-यहाँ जिस प्रकार जघन्य बन्धस्थानसे लेकर संख्यात अष्टांक और ऊबंक स्थानोंके अन्तरालोंमें घातस्थानोंका प्रतिषेध किया गया है उसी प्रकार इन घातस्थानोंके भी नीचे संख्यात अष्टांक व ऊर्वक स्थानोंके अन्तरालोंमें घातघातस्थानोंका प्रतिषेध क्यों नहीं किया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि प्रतिषेधसे सम्बद्ध न तो सूत्र पाये जाते हैं और न आचार्य वचन ही।
शंका-विधिके बिना सर्वत्र अष्टांक और ऊर्वकस्थानोंके अन्तरालों में घातघातस्थानोंकी प्ररूपणा कैसे की जाती है ?
समाधान-हमारा यह आग्रह नहीं है कि सब अष्टांक और ऊर्वङ्क स्थानोंके अन्तरालोंमें घातघातस्थान होते ही हैं, किन्तु उनकी विधि व प्रतिषेध नहीं है, यह जतलानेके लिये उनकी प्ररूपणा की गई है।
इस प्रकारसे एक एक हतसमुत्पत्तिकस्थानके नीचे असंख्यात लोक प्रमाण हतहतसमत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। पुनः पश्चादानुपूर्वीसे उतर कर बन्धसमुत्पत्तिक द्विचरम अष्टांक और ऊर्वकके मध्यमें असंख्यात लोक प्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। फिर इन स्थानों के
१मप्रति पाठोऽयम् । अ-श्रा-ताप्रतिषु 'जीवपदेण' इति पाठः। २ श्राप्रतौ 'एत्थ अंकाणमागहो' इति पाठः।
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