Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२३०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[४, २, ७, २६७. विक्खंभेण संतकम्मट्ठाणपदराणि उप्पजंति आहो णेदि पुच्छिदे सुहुमणिगोदअपजत्तजहण्णट्ठाणस्स उवरि संखजाणं खंडसमुप्पत्तियअट्ठक-उव्वंकाणं अंतराणि मोत्तूण उवरिमअसंखेजलोगमेत्तअटुंकुव्वंकंतरेसुसम्बेसु उपजंति। हेहिमसंखेजअहंक-उव्वंकाणं विच्चालेसु हदसमुप्पत्तियट्ठाणाणि ण उप्पजति त्ति कुदो' णव्वदे? आइरियोवदेसादो अणुभागवड्डिहाणिअप्पाबहुगादो वा । तं जहा-सव्वत्थोवा हाणी, वड्डी विसेसाहिया त्ति । एगसमएण जत्तियमुक्कस्सेण वड्डिदृण बंधदि पुणो तं सव्वुक्कस्सविसोहीए एगवारेण एगाणुभागकंदयघादेण घादेदुं ण सक्कदि त्ति जाणावणटुं पदिदप्पाबहुगं कधं णाणासमयपबद्धवड्डीए णाणाखंडयघादुप्पण्णहाणीए च ? उच्चदे ण एस दोसो, एदस्स अप्पाबहुअसुत्तस्स उभयत्थ पउत्तीए विरोहाभावादो। कथमेगमणेगेसु वट्टदे ? ण, एगस्स मोग्गरस्स अणेगखप्परुप्पत्तीए वावारवलंभादो (कसायपाहुडस्स अणुभागसंकमसुत्तवक्खाणादो वा णव्वदे जहा सव्वत्थ ण उप्पजंति ति। तं जहा- अणुभागसंकमे चउवीसअणियोगदारेसु समत्तेसु भुजगारपदणिक्खेववड्डीओ भणिय पच्छा अणुभागसंकमहाणपरूवणं
षट्स्थानमात्र विष्कम्भसे सत्कर्मस्थानप्रतर उत्पन्न होते हैं अथवा नहीं होते हैं ?
समाधान-ऐसा पूछनेपर उत्तर में कहते हैं कि सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवके जघन्य स्थानके ऊपर संख्यात खण्डसमुत्पत्तिक अष्टांक और ऊर्वकके अन्तरालोंको छोड़कर उपरिम असंख्यात लोकमात्र सब अष्टांक और ऊर्वकके अन्तरालों में उत्पन्न होते हैं।।
शंका- अधस्तन संख्यात अष्टांक और ऊर्वंकके अन्तरालोंमें हतसमुत्पत्तिक स्थान नहीं उत्पन्न होते हैं, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-वह आचार्यों के उपदेशसे जाना जाता है । अथवा अनुभागवृद्धि हानिके अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । यथा-हानि सबमें स्तोक है । वृद्धि उससे विशेष अधिक है।
शंका-एक समय में उत्कृष्टरूपसे जितना वृद्धिंगत होकर बाँधता है उसे सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा एक बारमें एक अनुभागकाण्डकसे घातनेको समर्थ नहीं है, इस बातके जतलानेके लिये जो अल्पबहुत्व आया है उसकी प्रवृत्ति नाना समयप्रबद्धोंकी वृद्धि और नानाकाण्डकघातोंसे उत्पन्न हानिमें कैसे हो सकती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस अल्पबहुत्वसूत्रकी दोनों जगह प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता है।
शंका-एक अनेक विषयों में कैसे प्रवृत्ति कर सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, एक मुद्गरका अनेक खप्परोंकी उत्पत्तिमें व्यापार पाया जाता है।
अथवा कसायपाहुड़के अनुभागसंक्रमसूत्रके व्याख्यानसे जाना जाता है कि उक्त स्थान सर्वत्र नहीं उत्पन्न होते हैं । यथा-अनुभागसंक्रममें चौबीस अनुयोगद्वारोंके समाप्त होनेपर भुजा
१ तापतौ 'उप्पजंति त्ति । कुदो' हति पाठः । २ अ-याप्रत्यो 'बडिदेण', ताप्रती 'वहिदेण ( वदे ? ण,) इति पाठः।
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