Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ७, २६७. वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ २३१ भणदि) उक्कस्मए अणुभागबंधट्ठाणे एगसंतकम्मट्ठाणं । तमेगं चेव संकमट्ठाणं । दुचरिमे अणुभागबंधट्टाणे एगं संतकम्मट्ठाणं । एगं चेव संकमहाणं । एवं पच्छाणुपुव्वीए ताव णेयव्वं जाव पढमअणंतगुणहीणहाणमपत्तं त्ति । पुणो पुव्वाणुपुबीए गणिजमाणे जं चरिममणंतगुणबंधट्ठाणं तस्स हेट्ठा जमणंतरमणंतगुणहीणबंधट्ठाणं तस्स उवरि एदम्हि अंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्टाणाणि । ताणि संतकम्मट्ठाणाणि चेव । ताणि चेव संकमट्ठाणाणि' । तदो पुणो बंधट्ठाणाणि संक्रमट्ठाणाणि च ताव तुल्लाणि होदण ओयरंति जाव पच्छाणुपुव्वीए विदियमणंतगुणहीणं बंधट्ठाणमपत्तं त्ति । तदो विदियअणंत गुणहीणबंधट्ठाणस्स उपरि अंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । एदाणि संतकम्मट्ठाणाणि
चेव । एदाणि चेव संकमट्ठाणाणि । पुणो एवं पच्छाणुपुबीए गंतूण तदियअणंतगुणहीणट्ठाणस्स उवरिलंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । एदाणि संतकम्मट्ठाणाणि । एदाणि चेव संकमट्ठाणाणि । पुणो एवं गंतूण चउत्थअणंतगुणहीणबंधट्ठाणस्स उवरिमअंतरे असंखेजलोगमेत्ताणि घादट्ठाणाणि । एदाणि चेव संतकम्मट्ठाणाणि । एदाणि चेव संकमट्ठाणाणि च । एवं णेयव्वं जाव अप्पडिसिद्ध अंतरे त्ति । हेट्ठा जाणि चेव बंधट्ठाणाणि ताणि चेव संतकम्मट्ठाणाणि संकमट्ठाणाणि चे ति एसो अत्थो विउलगिरिमत्थयत्थेण पच्चक्खीकयतिकालगोयरछदव्वेण वड्डमाणभडारएण गोदमथेरस्स कहिदो ।
कार, पदनिक्षेप और वृद्धिको कहकर पश्चात् अनुभागसंक्रमस्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं-उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थानमें एक सत्त्वस्थान है। वह एक ही संक्रमस्थान है। द्विचरम अनुभागबन्धस्थानमें एक सत्कर्मस्थान है। यह एक ही संक्रमस्थान है। इस प्रकार पश्चादानुपूर्वीसे तब तक ले जाना चाहिये जब तक प्रथम अनन्त गुणहीन स्थान प्राप्त नहीं होता। पश्चात् पूर्वानुपूर्वी से गणना करनेपर जो अन्तिम अनन्तगुणा बन्धस्थान है उसके नीचे जो अनन्तर अनन्तगुणा हीन बन्धस्थान है उसके ऊपर
अन्तरमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान है। वे सत्कमस्थान ही है। वे ही संक्रमस्थान हैं। तत्पश्चात् बन्धस्थान और संक्रमस्थान तब तक समान होकर उतरते हैं जब तक पश्चादानुपूर्वीसे द्वितीय अनन्तगुणहीन बन्धस्थान नहीं प्राप्त होता । पश्चात् द्वितीय अनन्तगुणहीन बन्धस्थानके उपरिम अन्तरमें असंख्यात लोकमात्र घातस्थान हैं। ये सत्कर्मस्थान ही हैं। ये ही संक्रमस्थान हैं । फिर इसी प्रकार पश्चादानुपूर्वीसे जाकर तृतीय अनन्तगुणहीन स्थानके उपरिम अन्तरमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान है। ये सत्कमस्थान है। ये ही संक्रमस्थान है। फिर इसी प्रकार जाकर चतुर्थ अनन्तगुण बन्धस्थानके उपरिम अन्तरमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान हैं। ये ही सत्कर्मस्थान हैं और ये ही संक्रमस्थान भी हैं। इस प्रकारसे अप्रतिसिद्ध अन्तर तक ले जाना चाहिये । नीचे जो बन्धस्थान है वे ही सत्कर्मस्थान हैं और वे ही संक्रमस्थान भी हैं । इस अर्थकी प्ररूपणा विपुलाचलके शिखरपर स्थित व तीनों कालांके विषयभूत छह द्रव्योंका प्रत्यक्षसे अवलोकन
१ जयध. अ. पत्र ३७०। २ अ-आप्रत्योः 'विदियमणंत' इति पाठः। ३ अ-पाप्रत्योः 'अपडिसिद्ध इति पाठः। ४ श्राप्रती 'संतकम्माणाणि चेति संकमाणाणि च एसो' इति पाठः।
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