Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४,२, ७, २६७.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [२२३ इच्छिजमाणे को दोसो ? ण, सधजीवरासिणा संतवाणे गुणिदे अट्ठकादो अणंतगुणं होदूण संतट्ठाणस्सुप्पत्तिप्पसंगादो। ण चाटुंकादो उपरि संतढाणाणं संभवो, सम्वेसिं संतवाणाणमटुंकुव्वंकाणं विच्चाले चेव उप्पत्ती होदि त्ति गुरुवदेसादो । संतट्टाणेसु विरोहदंसणादो सव्वजीवरासिगुणगारो मा होदु णाम, सेसगुणगार-भागहारा बंधट्टाणसमाणा किण्ण होति, विरोहाभावादो १ ते चेव' होंतु णाम जदि विरोधो पत्थि । एत्थ पुण ते ण होंति, विरोहुवलंभादो। एत्थ पुण केण विरोहो ? गुरूवदेसेण । केरिसो एत्थ गुरूवदेसो ? संतकम्मट्ठाणेसु अणंतभागवड्डि-अणंतगुणवड्ढीणं भागहार-गुणगारा अभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता त्ति । अण्णासु वड्डि हाणीसु बंधट्ठाणसमाणत्तं होदु णाम, पडिसेहाभावादो।।
पुणो अण्णेण जीवेण तिचरिमअन्झवसाणपरिणदेण तम्हि चेव चरिमउव्वंके घादिदे तदियअणंतभागवड्डिहाणमुप्पज्जदि । एगादो चरिमुव्वंकट्ठाणादो कधमणेगाणं
... शंका-बन्धवृद्धिके क्रमसे यहाँ स्वीकार करनेपर क्या दोष है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेसे सर्व जीवराशिके द्वारा सत्त्वस्थानको गुणित करनेपर अष्टांकसे अनन्तगुणा होकर सत्त्वस्थानकी उत्पत्तिका प्रसंगआता है। परन्तु अष्टांकसे ऊपर सत्त्वस्थान सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, समस्त सत्त्वस्थानोंकी उत्पत्ति अष्टांक और ऊर्वकके बीच में ही होती है. ऐसा गुरुका उपदेश है।
शंका-सत्त्वस्थानों में विरोधके देखे जानेसे सब जीवराशि गुणकार न होवे, किन्तु शेष गुणकार और भागहार बन्धस्थान समान क्यों नहीं होते; क्योंकि, उसमें कोई विरोध नहीं है ? ।
समाधान-वे वहाँ भले ही वैसे हो जहाँ कि विरोधकी सम्भावना न हो। परन्तु यहाँ वे वैसे नहीं होते हैं, क्योंकि, विरोध पाया जाता है। .
शंका-परन्तु यहाँपर किसके साथ विरोध आता है ? समाधान-गुरुके उपदेशके साथ विरोध आता है ? शंका- यहाँ गुरुका उपदेश कैसा है ?
समाधान - सत्कर्मस्थानोंमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिका भागहार और गुणकार दोनों अभव्य जीवोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण होते हैं, ऐसा गुरुका उपदेश है । अन्य वृद्धियों और हानियोंमें वे भले ही बन्धस्थानके समान हों, क्योंकि, इसका वहाँ प्रतिषेध नहीं है।
पुनः त्रिचरम अध्यवसानस्थानसे परिणत हुए अन्य जीवके द्वारा उसी अन्तिम ऊर्वकका घात किये जानेपर तृतीय अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है।
शंका-एक अन्तिम ऊर्वकस्थानसे अनेक सत्त्वस्थानोंकी उत्पत्ति कैसे सम्भव है ?
१ अ-ताप्रत्योः 'च्चेव' इति पाठः ।
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