Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१५४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, २०.७ हाणंतरफद्दयंतराणंच पंच-चदु-तिण्णि-दु-एगविहवड्डीयो जहाकमेण वत्तव्याओ। एवमसंखेन्जलोगमेत्तछहाणम्मि द्विदअसंखेज्जभागवड्डीणं परूवणा कायव्वा ।
संखेजभागवड्डी काए परिवड्डीए ॥२०७ ।।
एदं पुच्छासुत्तं दोण्णि आदि कादूण जाव उक्कस्ससंखेज्जयं ति ताव एदाणि संखेज्जवियप्पट्टाणाणि अवेक्खदे' । एदस्स णिण्णयत्थं उत्तरसुत्तं भणदि
जहण्णयस्स असंखेजयस्स रूवूणयस्स संखेजुभागपरिवड्ढी, एवदिया परिवड्डी ॥ २०८॥
'जहण्णयस्स असंखेजयस्स रूवूणयस्स' इदि भणिद उकस्सं संखेजयं घेत्तव्वं। उज्जुएण उक्कस्ससंखेन्जेण इत्ति अभणिदूण सुत्तगउरवं कादण किमटुं उच्चदे 'जहण्णयस्स' असंखेजयस्स रूवणयस्स' इत्ति? उक्कस्ससंखेजयस्स पमाणेण सह संखेजभागवड्डीए पमाणपरूवणटुं । परियम्मादो उक्कस्ससंखेज्जयस्स पमाणमवगदमिदि ण पञ्चवट्ठाणं काहुँ जुत्तं, तस्स सुत्तत्ताभावादो । एदस्स णिस्सेसस्स आइरियाणुग्गहणेण पदविणिग्गयस्स एदम्हादो पुधत्तविरोहादो वा ण तदो उकस्ससंखेजयस्स पमाणसिद्धी । एदेण उक्कस्ससंखेजेण रूवाहियकंदएण गुणिदकंदयमेत्ताणमणंतभागवड्डीणं चरिमअणंतभाणवड्डिहाणे भागे हिदे जं भागऔर अनन्तगुणवृद्धि स्थानोंके स्थानान्तरों और स्पर्धकान्तरोंके यथाक्रमसे, पांच, चार, तीन, दो और एक वृद्धियां कहनी चाहिये । इस प्रकार असंख्यात लोक मात्र षटस्थानमें स्थित असंख्यात. भागवृद्धियों की प्ररूपणा करनी चाहिये।
संख्यातभागवृद्धि किस वृद्धि द्वारा वृद्धिको प्राप्त होती है ? ॥ २०७॥
यह पृच्छासूत्र दो से लेकर उत्कृष्ट संख्यात तक इन संख्यात विकल्पोंकी अपेक्षा करता है इसके निर्णयके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
एक कम जघन्य असंख्यातको वृद्धिसे संख्यातभागवृद्धि होती है। इतनी वृद्धि होती है ॥ २०८ ॥
'एक कम जघन्य असंख्यात' के कहनेपर उत्कृष्ट संख्यातको ग्रहण करना चाहिये ।
शंका-सीधेसे उत्कृष्ट संख्यात न कहकर सत्रको बड़ा करके 'एक कम जघन्य असंख्यात' ऐसा किसलिये कहा जा रहा है ?
समाधान उत्कृष्ट संख्यातके प्रमाणके साथ संख्यातभागवृद्धिके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेके लिये वैसा कहा गया है । यदि कहा जाय कि उत्कृष्ट संख्यातका प्रमाण परिकर्मसे अवगत है, तो ऐसा प्रत्यवस्थान करना योग्य नहीं है, क्योंकि, उसमें सूत्ररूपता नहीं है। अथवा, आचायके अनुग्रहसे परिपूर्ण होकर पद रूपसे निकले हुए इस परिकमके चूंकि इससे पृथक् होनेका विरोध है, अतएव भी उससे उत्कृष्ट संख्यातका प्रमाण सिद्ध नहीं होता।
इस उत्कृष्ट संख्यातका एक अधिक काण्डकसे गुणित काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियोंसे १ अ-या-ताप्रतिषु 'उवेक्खदे' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'वुच्चदे १ जहण्णयस्स' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org