Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
२००] छक्खंडागमे वेयणप्रखंड
[४, २, ७, २२७. एदस्स अत्थो उच्चदे-एकस्स असंखेज्जगुणस्स हेहदो जदि कंदयसहिदकंदयवग्गमेत्ताणि संखेज्जभागवड्डिहाणाणि लभंति तो रूवाहियकंदयमेत्ताणमसंखेज्जगुणवड्डिहाणाणं किं लभामो त्ति फलं दुप्पडिरासीकदं कमेणेगकंदयेणेगरूवेण च गुणिय मेलाविदे कंदयघणो वेकंदयवग्गा कंदयं च लब्भदे । एवं तदिया हेट्टाहाणपरूवणा समत्ता।
१अ-बाप्रत्योः 'हेहादो' इति पाठः।
२५६ ६४
असंखेजगुणस्स हेट्टदो अणंतभागभहियाणं कंदयवग्गावग्गो | तिष्णिकंदयघणा तिण्णिकंदयवग्गा कंदयं च ॥ २२७॥
commmcc
चउत्थी हेहाहाणपरूवणा किमहमागदा ? असंखेज्जगुणब्भहिय-अणंतगुणब्भहियहाणाणं हेहिम अणंतभागवड्डिहाणाणं' पमाणपरूवणहूं। एदस्स सुत्तस्स अत्थो चुच्चदे। तं जहा-कंदयघणं दोण्णिकंदयवग्गे कंदयं च दुप्पडिरासिं करिय हवेदूण एगदएण एगरूवेण च जहाकमण गुणिदे कंदयवग्गावग्गो तिण्णिकंदयघणा तिण्णिकंदयवग्गा कंदयं च उप्पजदि त्ति ।
इसका अर्थ कहते हैं-एक असंख्यातगुणवृद्धिस्थानके नीचे यदि काण्डक सहित काण्डकवर्ग प्रमाण संख्यातभागवृद्धिस्थान पाये जाते हैं तो एक अधिक काण्डक प्रभाण असंख्यातगुणवृद्धिस्थानों के नीचे वे कितने पाये जावेंगे, इस प्रकार दो प्रतिराशि रूप किये गये फलको क्रमशः एक काण्डक और एक अंकसे गुणित करके मिला देनेपर एक काण्डकघन, दो काण्डकवर्ग और एक काण्डक पाया जाता है। इस प्रकार तृतीय अधस्तनस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई।
असंख्यातगुणवृद्धि के नीचे अनन्तभागवृद्धियोंका एक काण्डकवर्गावर्ग, तीन काण्डकघन, तीन काण्डकवर्ग और एक काण्डक [४२ = १६, १६' = २५६, २५६+(४.४३)+(४२४३)+४] होता है ।। २२७ ॥
शंका-चतुर्थ अधस्तनस्थानप्ररूपणा किसलिये प्राप्त हुई है ? ।
समाधान-वह असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि स्थानोंके नीचेके अनन्तभागवृद्धि स्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करनेके लिये प्राप्त हुई है।
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-एक काण्डकघन, दो काण्डक वर्गों और एक काण्डकको दो प्रतिराशि रूप करके स्थापित कर एक काण्डक और एक अंकसे क्रमशः गुणित करनेपर एक काण्डकवर्गावर्ग, तीन काण्डकघन, तीन काण्डकवर्ग और एक काण्डक उत्पन्न होता है।
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ:ताप्रत्योः 'हेहिमश्रणंतभागवादि-असंग्वेज्जभागवड्डिाणाणं' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org