________________
२१६] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, २६० होति | ४ | ५ | ५ || एदेसु संखेज्जगुणवड्डिट्ठाणेहि ओवट्टिदेसु रूवाहियकंदयं गुणगारो लब्भदे।
असंखेजभागभहियाणि ठाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २६० ॥
एत्थ वि गुणगारो रूवाहियकंदयं । कुदो ? संखेज्जभागवड्डिहाणाणि ठविय रूवाहियकंदएण गुणिदे एगछट्ठाणभंतरे असंखेज्जभागवड्डिहाणाणि समुप्पज्जंति | ४ | ५ | ५ | ५, हेहिमरासिणा तेसु ओवट्टिदेसु' गुणगारुप्पत्तीदो।
अणंतभागब्भहियाणि हाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २६१ ॥
एत्थ वि गुणगारो रूवाहियकंदयं । कुदो ? रूवाहियकंदएण असंखेजभागवड्डि. हाणेसु गुणिदेसु एगछट्ठाणभंतरे अणंतभागवड्डिाणाणमुप्पत्तीदो | ४ | ५ | ५ | ५ |५|| एदाणि एगछहाणभंतरअणंतगुणवड्डि | १ | असंखेजगुणवड्डि । ४ । संखेजगुणवड्डि |४|५२ संखेजभागवड्डि |४|५|५| असंखेजभागवड्डि | ४|५|५|५| अणंतभागवड्डि | ४ |५| ५ | ५ |५| हाणाणि हविय एगछट्ठाणभंतरे जदि एत्तियाणि अप्पिदहाणाणि लब्भंति तो असंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणं किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सव्वछट्ठाणाणमणंतगुणवड्डि-असंखेजगुणवड्डि-संखेजगुणद्वारा गणित (४४५४५) करनेपर एक षट्स्थानके भीतर संख्यातवृद्धिस्थान हैं। इनको संख्यातगुणवृद्धिस्थानोंके द्वारा अपवर्तित करनेपर एक अंकसे अधिक काण्डक गुणकार पाया जाता है।
उनसे असंख्यातभागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २६० ॥
यहाँपर भी गुणकार एक अंकसे अधिक काण्डक है, क्योंकि, संख्यातभागवृद्धिस्थानोंको स्थापित कर एक अधिक काण्डकसे गुणित करनेपर एक षट्स्थानके भीतर असंख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होते हैं-४४५४५४५, क्योंकि, उनको अधस्तन राशिसे अपवर्तित करनेपर गुणकार उत्पन्न होता है।
उनसे अनन्त भागवृद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २६१ ॥
यहाँपर भी गणकार एक अधिक काण्डक है,। क्योंकि, एक अधिक काण्डकसे असंख्यातभागवृद्धिस्थानोंको गुणित करनेपर एक षट्स्थानके भीतर अन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होते हैं ४४५४५४५४५। एक षटम्थानके भीतर इन अनन्तगुणवृद्धिस्थानों (१),असंख्यातगणवृद्धिस्थानों (४), संख्यातगणवृद्धिस्थानों (४४५), संख्यातभागवृद्धिस्थानों (४४५४५), असंख्यातभागवृद्धिस्थानों । ४४५४५४५), और अनन्तभागवृद्धिस्थानों ( ४४५४५४५४५) को स्थापित कर एक षटस्थानके भीतर यदि इतने विवक्षित स्थान पाये जाते हैं तो असंख्यात लोक मात्र षटस्थानोंके वे कितने पाये जावेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर समस्त षट्स्थानोंकी अनन्तगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि,
१ प्रतिषु 'वडिदेसु' इति पाठः । २ प्रतिषुः | ४ ४ | इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org