Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१९८]
खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ७, २२३.
वड्डीओ लब्भंति तो वाहियकंदयमंत्ताणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदार कंदयसहिदकंदयवग्गमेताओ संखेज्जभागवड्डीयो लब्धंति । सेसं सुगमं । संखेज्जगुण भहियाणं कंदयवग्गं कंदयं च गंतूण अनंतगुणग्भहियं ट्ठाणं ॥ २२३ ॥ १६
एदेसिं उत्पत्तिविहाणं उच्चदे । तं जहा - - एकिस्से अनंतगुणवड्डीए हेट्ठा जदि कंदयमेचाणि संखेजगुणवड्ढिट्ठाणाणि लब्भंति तो रूवाहियकंदयमेत्ताणमसंखेज्जगुणवाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए कंदय सहिदकंदयगमेाणि संखेजगुणवड्डिद्वाणाणि अकादो हेड्ट्ठा लद्वाणि होंति । एवं विदिया हेडाट्ठाणपरूवणा समत्ता ।
संखेज्जगुणस्स eat अनंतभाग भहियाणं कंदयघाणो बेकंदयवग्गा कंदयं च ॥ २२४ ॥
दिया हाणपरूवणा किमहमागदा ? संखेज्जगुणवड्डि-असंखेज्जगुणवड्डि-अनंतगुणवड्डीणं हेदो' अनंतभागवड्डि-असंखेज भागवड्ढि संखेज्जभागवड्डीणं जहाकमेण
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जाती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियोंके नीचे वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर काण्डक सहित काण्डकवर्ग प्रमाण संख्यात भागवृद्धियाँ पायी जाती हैं। शेष कथन सुगम है ।
संख्यातगुणवृद्धियोंका काण्डकवर्ग और एक काण्डक ( १६+४) जाकर अनन्तगुणवृद्धिका स्थान होता है ।। २२३ ॥
इनके उत्पन्न कराने की विधि बतलाते हैं । वह इस प्रकार है- एक अनन्तगुणवृद्धि के नीचे यदि काण्डक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियाँ पायी जाती हैं तो एक अधिक काण्डक प्रमाण असंख्यातगुणवृद्धिस्थानोंके नीचे वे कितनी पायी जावेंगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर अष्टांक के नीचे काण्डक सहित काण्डकवर्ग प्रमाण संख्यातगुणवृद्धिस्थान पाये जाते हैं । इस प्रकार द्वितीय अधस्तनस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई।
संख्यातगुणवृद्धि नीचे अनन्तभागवृद्धियों का काण्डकघन, दो काण्डकवर्ग और एक काण्डक ( ४° + (४* × २ ) + ४ ) होता है ।। २२४ ॥
शंका - तृतीय अधस्तनस्थानप्ररूपणा किसलिये प्राप्त हुई है ?
समाधान - वह संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि, इन वृद्धियों के नीचे क्रमशः अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागवृद्धि, इनका प्रमाण बतलानेके प्राप्त हुई है।
१ श्रापत्योः 'हेहादो' इति पाठः ।
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