Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१५७ तत्थ तम्मि पक्खित्ते असंखेज्जगुणवड्डिहाणं होदि । असंखेज्जगुणवड्ढोए एगाविभागपडिच्छेदे अवणिदे हाणंतरं होदि । एदं हेहिमअणंतभागव ड्डिहाणंतरेहितो अणंतगुणं । असंखज्जभागवड्डि-संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डिाणंतरेहितो असंखेज्जगुणं । उवरिमगुणवड्डिहाणादो हेट्ठिमअणंतभागवड्डिाणंतरेहिंतो अणंतगुणं। असंखेज्जभागवड्डि. हाणंतरेहितो असंखेज्जगुणं । संखेज्जभागवड्डिहाणंतरेहितो संखेज्जगुणं संखेज्जभागहीणं संखेज्जगुणहीणं असंखेज्जगुणहीणं वा। संखेज्जगुणवड्डि-असंखेज्जगुणवड्डिहाणंतरेहितो असंखेज्जगुणहीणं । उवरि जाणिय णेयव्वं । इमाए असंखेज्जगुणवड्डीए एत्थतणफद्दयसलागाहि ओवट्टिदाए फद्दयं होदि । एत्थ एगाविभागपडिच्छेदे अवणिदे फद्दयंतरं होदि । एदं पि हेट्ठिम-उवरिमफद्दयंतरेहि सह सण्णिकासिदव्वं ।
अणंतगुणपरिवड्डी काए परिवड्डीए ? ॥२१३॥ . सुगमं । सव्वजीवेहि अणंतगुणपरिवड्डी, एवदिया परिवड्डी ॥२१४॥
हेडिमउव्वंके सव्वजीवरासिणा गुणिदे अणंतगुणवड्डी होदि । तं चेत्र पडिरासिय अणंतगुणवद्धिं पक्खित्ते अणंतगुणवड्डिाणं होदि । एदाए चेव वड्डीए अणंतगुणवड्डिफद्दयसलागाहि ओवट्टिदाए फद्दयं होदि । एत्थ वि ढाणंतर-फद्दयंतरसण्णिकासो कायव्यो ।
प्रतिराशि करके उसमें उसे मिलानेपर असंख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है। असंख्यातगुणवृद्धिमेंसे एक अविभागप्रतिच्छेदके कम करनेपर स्थानान्तर होता है। यह अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानान्तरोंसे अनन्तगुणा; असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिस्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा, उपरिम गुणवृद्धिस्थानसे नीचेके अनन्तभागवृद्धिस्थानान्तरोंसे अनन्तगुणा, असं. ख्यातभागवृद्धि स्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा, संख्यातभागवृद्धि स्थानान्तरोंसे संख्यातगुणा, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन अथवा असंख्यातगुणहीन, तथा संख्यातगुणवृद्धि व असंख्यातगुणवृद्धिस्थानान्तरोंसे असंख्यातगुणा हीन है। आगे जानकर ले जाना चाहिये । इस असंख्यातगुणवृद्धिको यहाँकी स्पर्द्धकशलाकाओंसे अपवर्तित करनेपर स्पर्द्धक होता है। इसमेंसे एक अविभागप्रतिच्छेदके कम करनेपर स्पर्द्धकान्तर होता है। इसकी भी अधस्तन व उपरिम स्पर्द्धकान्तरोंके साथ तुलना करनी चाहिये।
अनन्तगुणवृद्धि किस वृद्धिसे वृद्धिंगत है ? ॥ २१३ ॥ यह सूत्र सुगम है। अनन्तगुणवृद्धि सब जीवोंसे वृद्धिंगत है। इतनी मात्र वृद्धि होती है ॥ २१४ ॥
अधस्तन ऊवकको सब जीवराशिसे गुणा करनेपर अनन्तगुणवृद्धि होती है । उसीको प्रतिराशि करके अनन्तगुणवृद्धिको मिलानेपर अनन्तगुणवृद्धिस्थान होता है। इसी वृद्धिको अनन्तगुणवृद्धि स्पर्द्धकशलाकाओंसे अपवर्तित करनेपर स्पर्द्धक होता है। यहाँपर भी स्थानान्तर और स्पर्द्ध
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