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४, २, ७, २१४. ]
बेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया
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आणिअंति त्तिणेदं पि घडदे, एगभवम्मि संखेजकिरियस्त्र पुरिसस्स असंखेज किरियासु वावारविरोहादो । तदो पुव्त्रपरूविभागहारपरूवणं ण घडदे त्ति १ सुचमेदं, किंतु असरित्तं पक्खेवाणमविवक्खिय सरिसा इदि बुद्धीए संकल्पिय भागहारपरूवणा कीरदें (श्रीवयणेण कथं ण कम्मबंधो' १ दमलीयवयणं, एवंतग्गहाभावादो। ण च एदेण वयणेण मिच्छाणाणमुप्पाइजदे, असंखेजेहि वासेहि पुध पुध तेरासियं काऊण उप्पादभागहारेहिंतो समुप्पण्णणाणसमाणसुदणाणुप्पत्तदो । ण च अंतेवासीणमाहरिया सव्वमुत्तत्थं भणति, तहाविहसत्तीए अभावादो) कथं पुण सयलसुदणाणुप्पत्ती १ ण एस दोसो, अणुत्तोवग्गह- ईहावाय धारणाहि तदुष्पत्तदो । उत्तं च
पण वणिज्जा भावा अतभागो दु अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अांतभागो सुदणिबद्धो ॥ १० ॥ आचार्यः पादमाचष्ट पादः शिष्यः स्वमेधया । तद्विद्यसेवया पादः पादः कालेन पच्यते ॥ ११ ॥
नहीं होता है, क्योंकि, संख्यात क्रिया युक्त पुरुषके असंख्यात क्रियाओंमें व्यापारका विरोध है । इस कारण पूर्व रूपित भागहारकी प्ररूपणा घटित नहीं होती ?
समाधान - यह सत्य है, किन्तु प्रक्षेपांकी असमानताकी विवक्षा न कर बुद्धिसे उन्हें सदृश कल्पित कर भागहारकी प्ररूपणा की जा रही है ।
शंका- इस असत्यभाषणसे कर्मबन्ध कैसे न होगा ?
समाधान - यह असत्यभाषण नहीं है, क्योंकि, इसमें एकान्त आग्रहका अभाव है । इस वचनसे मिथ्याज्ञान भी नहीं उत्पन्न कराया जा रहा है, क्योंकि, उसके द्वारा असंख्यात वर्षो से पृथक् पृथक् त्रैराशिक करके उत्पन्न कराये गये भागहारोंसे उत्पन्न ज्ञानके समान श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। दूसरे, आचार्य शिष्यों के लिये समस्त सूत्रार्थको नहीं कहते हैं, क्योंकि, वैसी सामर्थ्य नहीं है ।
शंका- तो फिर पूर्ण श्रुतज्ञान कैसे उत्पन्न हो सकता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अनुक्तावग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके द्वारा वह उत्पन्न हो सकता है । कहा भी है
वचनके अगोचर अर्थात् केवल केवलज्ञान के विषयभूत जीवादिक पदार्थों के अनन्तवें भागमात्र प्रज्ञापनीय अर्थात् तीर्थंकरकी सातिशय दिव्यध्वनिके द्वारा प्रतिपादनके योग्य हैं । तथा प्रतिपादन के योग्य उक्त जीवादिक पदार्थोंका अनन्तवाँ भाग मात्र श्रुतनिबद्ध है ॥ १० ॥
आचार्य एक पादको कहते हैं, एक पादको शिष्य अपनी बुद्धिसे ग्रहण करता है, एक पाद उसके जानकार पुरुषोंकी सेवासे प्राप्त होता है, तथा एक पाद समयानुसार परिपाकको प्राप्त होता है ॥ ११ ॥
१ प्रतौ 'कमबंधो' इति पाठः । २ गो० जी० ३३४. विशेषा० १४१ । ३ श्र श्राप्रत्योः 'पद-' इति पाठः । ४ मप्रतिपाठोऽयम् । श्रामत्योः पादः शिष्यस्य' मेधया, ताप्रतौ 'पादः शिष्यस्य मेधया' इति पाठः ।
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