Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ७, २१४. ]
वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया
[ ७३
एवमेगपक्खवमेगपिसुलं च घेत्तूण उवरिमउव्वंकं पडिरासिय पक्खित्ते विदियसंखेजभागवड्डिहाणं होदि । विदियसंखेज्जभागवड्डिहाणं णाम जहण्णट्ठाणं पेक्खिदूण दोहि संखेज्जभागवड्डि पक्खवेहि एगेण संखेज्जभागवड्डिपिसुलेण च अहियं होदि ।
देसिं जहणहाणादी उत्पत्ती बुच्चदे । तं जहा - उक्कस्ससंखेज्जयस्स अद्धं विरलेदूण जहणणं समखर्ड कादृण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स दो-दोसगलपक्खेवा पावेंति । पुणो एदस्स हेट्ठा दुगुणमुक्कस्ससंखेज्जं विरलेदूण उवरिमए गरूवधरिदं समखंड दादूण दिणे रूवं पडि एगेग पिसुलपमाणं पावदि । पुणो एदमुवरिमरूवधरिदेसु' दादूण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं परूवणं कस्सामो । तं जहा - रूवाहियहेट्ठि मविरलणमेत्तद्धाणं गंतू जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणि दिच्छाए ओट्टिदाए किंचूणो एगरूवस्स चदुष्भागो आगच्छदि । एदमुवरिमविरलणाए सोहिय सुद्ध सेसेण जहण्णट्ठाणे भागे हिदे वेपक्खेवा एगपिसुलं च लब्भदि । पुल जहणणं पडिरासिय पक्खित्ते विदियसंखेज्जभागवड्ढिट्ठाणमुप्पज्जदि । एवमुवरिमसंखेज्जभागवड्ढिट्ठाणाणं सव्वेसिं पि जाणिदूण भागहारो परूवेदव्वो जाव चरिमसंखेज्जभागवड्डिड्डाणे ति । तदुवरि संखेज्जगुणवड्डिड्डाणं होदि ।
संपहि संखेज्जभागवड्डिकमेण जहण्णडाणादो अणुभागहाणेसु वढमाणेसु केत्तिय
ग्रहण कर उपरिम ऊर्वकको प्रतिराशि करके मिलानेपर द्वितीय संख्यात भागवृद्धिग्थान होता है । द्वितीय संख्यात भागवृद्धिस्थान जघन्य स्थानकी अपेक्षा दो संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपों और एक संख्यात भागवृद्धिपिशुलसे अधिक होता है ।
इनकी जघन्य स्थानसे उत्पत्तिको कहते हैं । वह इस प्रकार है - उत्कृष्ट संख्यातके अर्ध भागका विरलनकर जघन्य स्थानको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति दो दो प्रक्षेप प्राप्त होते हैं । फिर इसके नोचे दुगुणे उत्कृष्ट संख्यातका विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक अंकके प्रति एक एक पिशुलका प्रमाण प्राप्त होता है । इसको उपरिम अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्यों में देकर समीकरणं करनेपर हीन अंकोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र अध्वान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन में वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका कुछ कम चतुर्थभाग आता है । इसको उपरिम विरलनमें से कम करके शेषका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर दो प्रक्षेप और एक पिशुल प्राप्त होता है । फिर लब्धको प्रतिराशीकृत जघन्य स्थान में मिलानेपर द्वितीय असंख्यात भागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार अन्तिम असंख्यात भागवृद्धिस्थानतक सभी उपरिम असंख्यात भागवृद्धिस्थानोंके भागद्दारकी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये । इससे आगे संख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है ।
अब संख्यात भागवृद्धिक्रमसे जघन्य स्थानसे अनुभागस्थानोंके बढ़नेपर कितना अध्वान
१ - श्रामत्योः 'एदमुवरि रूवधरिदेसु'; ताप्रतौ 'पदमुवरिमधरिदेसु' इति पाठः ।
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