Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१७२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, २१४. - एदिस्से संखेजभागवड्डीए उवरि सव्वजीवरासी भागहारो होदूण गच्छदि जाव कंदयमेतअणंतभागवडिहाणाणं चरिमउव्वंकटाणे त्ति । पुणो असंखेअभागवड्डिहाणं होदि । एदस्स भागहारो असंखेज्जा लोगा। एवं सकंदय-कंदयवग्गमेत्ताणि अणंतभागवड्डिहाणाणि कंदयमेत्ताणि असंखेज्जभागवड्डिहाणाणि च गंतूण विदियसंखेज्जभागवड्डिहाणमुप्पजदि। जहण्णहाणं पुण पेक्खिदूण पढमसंखेजभागवड्डिहाणादो उवरि दुगुणवड्डीदो हेहा सव्वत्थ संखेज्जभागवड्डी चेव । संपहि एत्तो प्पहुडि उवरिमसंखेजभागवड्डीणं परवणाए कीरमाणाए अणंतभागवड्डिअसंखेजभागवड्डीयो छोद्दिदूण परूवणं कस्सामो । कुदो ? तासिं वड्डीणं अइत्थोवत्तणेण पहाणत्ताभावादो।
___ संपहि विदियसंखेजभागवड्डिहाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा–हेहिमउवंकस्सुवरि वड्डिददव्वं पुध हविदे सेसं जहण्णट्ठाणं' होदि । पुणो तम्हि उकस्ससंखेज्जेण भागे हिदे एगो संखेज्जभागवड्डिपक्खेवो लब्भदि । एदं पुध दृविय पुणो उक्कस्ससंखेज्जेण भागे हिदे एगो संखेजभागवड्डिपक्खवो लब्भदि । एदं पुध ढविय पुणो उकस्ससंखज्जेण पुध पुध दृविदसंखेजभागवड्ढिपक्खेवे भागे हिदे एगं संखेजमागवड्ढिपिसुलं लब्भदि त्ति' ।
इस संख्यातभागवृद्धिके आगे सब जीवराशि भागहार होकर काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके अन्तिम ऊर्वक स्थानतक जाती है। फिर असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। इसका भागहार असंख्यात लोक है। इस प्रकार काण्डक सहित काण्डकके वग प्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थान और काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थान जाकर द्वितीय असंख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । परन्तु जघन्यस्थानकी अपेक्षा प्रथम असंख्यातभागवृद्धिस्थानसे ऊपर और दुगुणवृद्धिसे नीचे सर्वत्र संख्यातभागवृद्धि ही होती है।
___ अब यहाँ से लेकर उपरिम संख्यातभागवृद्धियोंकी प्ररूपणा करने में अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धिको छोड़कर प्ररूपणा करते हैं, क्योंकि, बहुत थोड़ी होनेसे उन वृद्धियों की प्रधानता नहीं है।
अब द्वितीय संख्यातभागवृद्धिकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-अधस्तन ऊर्वकके ऊपर वृद्धिप्राप्त द्रव्यको पृथक् स्थापित करनेपर शेष रहा जघन्य स्थान होता है। फिर उसमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर एक संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त होता है। इसको पृथक स्थापित कर फिर उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर एक संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त होता है। इसको पृथक् स्थापितकर फिर उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर एक संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप प्राप्त होता है । इसको पृथक् स्थापित कर फिर पृथक् पृथक् स्थापित संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर एक संख्यातभागवृद्धिपिशुल होता है। इस प्रकार एक प्रक्षेप और एक पिशुलको
.१ अप्रतौ 'जहण्णहाणो' इति पाठः । २ श्र-अप्रत्योः 'लब्भदि तो', ताप्रतौ 'लब्भदि तो (ति) इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org