Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१७०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४,२,७,२१४. णाए कि लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स असंखेज्जदिभागो लब्भदि । एदमुक्कस्ससंखेजम्हि सोहिय'सेसेण जहण्णहाणे भागे हिदे एगो संखेजभागवडिपक्खेवो कंदयमेत्ता असंखजभागवड्डिपक्खेवासकंदय-कंदयवग्गमेत्ता अणंतभागवड्डिपक्खेवा च लभंति । पुणो एत्तियदव्वं जहण्णहाणं पडिरासिय पक्खित्ते पढमसंखेज्जभागवड्डिहाणमुप्पजदि ।
____एत्थ अणंतभागवड्डीए उव्वंकसण्णा, असंखेजभागवड्डी चत्तारिअंको, संखेजभागवड्डी पंचको, संखेजगुणवड्डी छअंको, असंखेजगुणवड्डी सत्तंको, अणंतगुणवड्डी अट्ठको त्ति घेत्तव्यो । एदीए सण्णाए एगछहाणसंदिट्ठी जोजेयव्यो ।
संपहि पयदं उच्चदे-अणंतभागवड्डिपक्खेवा जे एत्थ एगभागहारेण आणिदा सकंदय कंदयवग्गमेत्ता ते सरिसा ण होति", अणंतभागवड्डि-असंखेजभागवड्डिसरूवेण तेसिमवढाणादो। असंखेज्जभागवडिपक्खेवा वि सरिसा ण होति, अण्णोण्णं पेक्खिदूण असंखेज्जभागवड्डीए अवहाणादो । तदो एगभागहारेण आणयणं ण जुज्जदे । अह पिसुलपिसुलापिसुलादीणं पुध पुध भागहारे उप्पाइय भागहारपरिहाणि कादण एगभागहारेण इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अङ्कका असंख्यातवां भाग पाया जाता है । इसको उत्कृष्ट संख्यातमें से कम करके शेषका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर एक संख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप, काण्डक प्रमाण असंख्यातभाग वृद्धिप्रक्षेप और काण्डक सहित काण्डकके वर्ग प्रमाण अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप पाये जाते हैं। इतने द्रव्यको जघन्य स्थानको प्रतिराशि कर उसमें मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है।
यहां अनन्तभागवृद्धिकी उर्वक संज्ञा, असंख्यातभागवृद्धिकी चतुरंक, संख्यातभागवृद्धिकी पंचांक, संख्यातगुणवृद्धिकी षडंक, असंख्यातगुणवृद्धिकी सप्तांक और अनन्तगुणवृद्धिकी अष्टांक संज्ञा जानना चाहिये। इस संज्ञासे एक षट्स्थान संदृष्टिकी योजना करनी चाहिये।
अब यहां प्रकृतका कथन करते हैं
शंका-काण्डक सहित काण्डकके वर्ग प्रमाण जो अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेप एक भागहारके द्वारा लाये गये हैं वे सदृश नहीं हैं, क्योंकि, उनका अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि स्वरूपसे अवस्थान है । असंख्यातभागवृद्धिके प्रक्षेप भी सदृश नहीं होते, क्योंकि, उनका परस्परकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धि स्वरूपसे अवस्थान है। इसीलिये उनका एक भागहारसे लाना योग्य नहीं है। यदि कहा जाय कि पिशुल व पिशुलापिशुल आदिकोंके पृथक पृथक् भागहारोंको उत्पन्न कराकर भागहारकी हानि कराकर एक भागहारके द्वारा वे लाये जा सकते हैं तो यह भी घटित
१ अप्रतौ'-संखेज सोहिय' इति पाठः। २ अ-अाप्रत्योः 'कंदयमेत्तो' इति पाठः। ३ ताप्रतावतोऽग्रे [कंदयमेत्ता असंखे०भागवडिपक्खेवा ] इत्यधिकः पाठः कोष्ठकान्तर्गतः ।
४ उव्वंकं चउरंकं प-छस्सत्तंक अअंकं च । छन्वडीणं सण्णा कमसो संदिष्टिकरण ॥गो०जी०३२५, ५ मप्रतौ 'सारिसाणि होति' इति पाठः।
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