Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१६६] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, २१४. क्खेवा एगपिसुलं च लभदि । पुणो एदम्मि जहण्णहाणे पडिरासिय पक्खित्ते विदियमसंखेज्जभागवड्डिहाणाप्पज्जदि । पुणो एदस्सुवरि सव्यजीवरासी भागहारो होदूण ताव गच्छदि जाव कंदयमेत्तअणंतभागवड्डिहाणाणं चरिम उव्वंकहाणे त्ति ।
पुणो एदस्सुवरिमतदियअसंखेज्जभागवड्डिहाणम्हि' भण्णमाणे चरिमउव्वंकस्सुरिमअसंखेज्जभागवड्डिपक्खेवे अवणिय पुध हविय जहण्णहाणं होदि, अप्पहाणीकयअणंतभागवड्डिपक्खेवत्तादो। पुणो असंखेज्जलोगेहि जहण्णहाणे भागे हिदे एगो पक्खेवो
आगच्छदि । इमं पुध हविय पुणो पुव्विल्ल असंखज्जलोगेहि चेव दोसु पक्खवेसु अवहिरिदेसु 'असंखज्जभागवड्डिपिसुलाणि आगच्छति । एदे पुध हविय पुणो तेणेव भागहारेण असंखेज्जभागवड्डिपिसुले खंडिदे एगं पिसुलापिसुलमागच्छदि । पुणो एगमसंखेज्जभागवड्डिपक्खवं तिस्से वड्डीए दोपिसुलाणि एगं पिसुलापिसुलं च घेत्तण चरिमउव्वंक पडिरासिय पक्खित्ते तदियअसंखेज्जभागवड्डिहाणं होदि । तदियअसंखेज्जभागवड्डिट्ठाणं णाम जहण्णट्ठाणादो तीहि असंखेज्जभागवड्डिपक्खवेहि तीहि असंखेज्जभागवड्डिपिसुलेहि एगेण पिसुलापिसुलेण च अधियं होदि । “पुणो एदमहियदव्वं जहण्णहाणादो उप्पाइज्जदे। तं जहा-असंखेजालोगाणं तिभागं" विरलेदुण जहण्णहाणं समखंडं कादूण
जघन्य स्थानमें प्रतिराशि करके मिलानेपर द्वितीय असंख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । फिर इसके आगे काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके अन्तिम ऊर्वकस्थान तक सब जीवराशि भागहार होकर जाती है।
पुनः इसके ऊपरके तृतोय असंख्यातभागवृद्धिस्थानका कथन करनेपर अन्तिम ऊर्वकके ऊपरके असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपको कम करके पृथक स्थापित करनेपर जघन्य स्थान होता है, क्योंकि, यहाँ अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपको प्रधान नहीं किया गया है। फिर असंख्यात लोकोंका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर एक प्रक्षेप आता है। इसको पृथक् स्थापित करके फिर पूर्वके असं. ख्यात लोकोंसे ही दो प्रक्षेपोंके अपहृत करनेपर असंख्यातभागवृद्धिपिशुल आते हैं। इनको
सा भागहारसे असंख्यातभागवृद्धि पिशुलको खण्डित करनेपर एक पिशला पिशुल आता है । अब एक असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेप, उसी वृद्धिके दो पिशुलों और एक पिशुला. पिशुलको ग्रहण कर अन्तिम ऊर्वकको प्रतिराशि करके मिलानेपर तृतीय असंख्यातभागवृद्धि स्थान होता है। तृतीय असंख्यातभागवृद्धिस्थान जघन्य स्थानकी अपेक्षा तीन असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपों, तीन असंख्यातभागवृद्धिपिशुलों और एक पिशुलापिशुलसे अधिक है। अब जघन्य स्थानसे इस अधिक द्रव्यको उत्पन्न कराते हैं । यथा-असंख्यात लोकोंके तृतीय भागका विरलन करके
१ा-ताप्रतिषु 'वडिहाणेहि' इति पाठः । २ अ-अप्रात्योः 'दो' इति पदं नोपलभ्यते. ताप्रतौ तूपलभ्यते । ३ अ-श्रा-ताप्रतिषु 'तेहि' इति पाठः। ४ अा-अा-ताप्रतिषु 'एदमादियदव्वं' इति पाठः। ५ ताप्रतिपाणेऽयम् । अा-अाप्रत्योः '-लोगाणंतिभागं' इति पाठः।
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