Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया
[१६७ दिपणे एककस्स रूवस्स तिण्णि-तिण्णिपक्खेवपमाणं पावदि। पुणो एदिस्से विरलणाए हेट्ठा असंखेज्जलोगे विरलिय 'एगरूवधरिदतिण्णिपक्खेवे घेत्तण समखंडं करिय दिण्णे एक्कक्कस्स रुवस्स तिण्णि तिणि पिसुनाणि पावंति । पुणो एदिस्से विदियविरलणाए हेट्ठा तिगुणमसंखेचलोगे विरलिय उवरिमएगेगरूवधरिद तिण्णि-तिण्णिपिसुलाणि घेत्तूण समखंडं करिय दिण्णे एकेकस्स रूवस्स एगेगपिसुलापिसुलपमाणं पावदि । पुणो एस विरलणं रूवाहियं गंतण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो मज्झिमविरलणम्मि किं लभामो ति एमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए किंचणो एगरूवस्स तिभागो भागच्छदि । पुणो एदं मज्झिमविरलणाए सोहिय सुद्धसेसं रूवाहियमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स तिभागो किंचूणो आगच्छदि। पुणो एदमुवरिमविरलणम्हि सोहिय जहण्णहाणे भागे हिदे तिण्णिपक्खेवा तिण्णिपिसुलाणि एगं पिसुलापिसुलं च आगच्छदि । पुणो एदम्मि जहण्णट्टाणस्सुवरि पक्खित्ते तदियमसंखेजभागवड्डिहाणं होदि । एदेण वीजपदेण उवरि वि णेयव्वं जाव अंगुलस्स असंखेजदिभागमेताणमसंखेजभागवड्डिहाणाणं चरिमअसंखेज्जभागवड्विट्ठाणे त्ति ।
पुणो चरिमअसंखेज्जभागवड्डिहाणस्स भागहारो उच्चदे। तं जहा-अंगुलस्स
जघन्य स्थानको समखण्ड करके देने पर एक एक अंकके प्रति तीन तीन प्रक्षेपोंका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इस विरलनके नीचे असंख्यात लोकोंका विरलन कर एक अंकके प्रति प्राप्त तीन प्रक्षेपोंको ग्रहणकर समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति तीन तीन पिशुल प्राप्त होते हैं। फिर इस द्वितीय विरलनके नीचे तिगुणे असंख्यात लोकोंका विरलन करके उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त तीन तीन पिशुलोंको ग्रहण कर समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक पिशुलापिशुलका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः एक अधिक इस विरलन प्रमाण जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो मध्यम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका कुछ कम एक तृतीय भाग आता है। फिर इसको मध्यम विरलनमेंसे कम करके जो शेष रहे उससे एक अधिक मात्र अध्वान जाकर यदि एक अककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन में वह कितनी पायी जावेगी: इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अकका कुछ कम एक तृतीय भाग आता है। फिर इसको उपरिम विरलनमेंसे कम करके जघन्य स्थानमें भाग देनेपर तीन प्रक्षेप, तीन पिशुल और एक पिशुलापिशुल श्राता है । पुनः इसको जघन्य स्थानके ऊपर मिला देनेपर तृतीय असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है । इस बीज पदसे अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थानों में अन्तिम असंख्यातभाग वृद्धिाथान तक ले जाना चाहिये।
अब अन्तिम असंख्यातभागवृद्धिस्थानके भागहारको कहते हैं । वह इस प्रकार है- अंगुलके
१ अ-श्राप्रत्योः -धरिदे' इति पाठः । २ अ-श्रा-प्रत्योः ‘-धरिदं' इति पाठः ।
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