Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ७, २१४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १६५ एदं पुध दृविय पुणो अवणिदपक्खेवेसु अणंतभागवडिपक्खेवा अप्पहाणा ति ते छोद्दिय असंखेजभागवड्विपक्खेवे असंखेजलोगेण खंडिदे तत्थ एगखंडमसंखेजभागवड्विपिसुलं होदि । एदं पिसुलं पुव्विल्लपक्खेवं च घेत्तूण चरिमउव्वंकं पडिरासिय पक्खित्ते विदियमसंखेजभागवड्डिहाणमुप्पजदि। पुणो एदं. जहण्णहाणादो दोहि असंखेञ्जभागवड्डिपक्खेवेहि एगपिसुलेण च अहियं होदि । एदं दुअहियदव्वं जहण्णहाणस्स केवडियो भागो होदि ति पुच्छिदे-असंखेज्जलोगे विरलिय जहण्णहाणे समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स एगो असंखेज्जभागवड्डीहिपक्खेवो पावदि । पुणो दोपक्खेवे इच्छामो त्ति पुव्विल्लभागहारस्स अद्धेण मागे हिदे रूवं पडि दो-दोपक्खेवपमाणं पावदि । पुणो एदाणमुवरि एगअसंखेज्जभागवड्डिपिसुलागमणमिच्छामो त्ति पुव्विल्लविरलणाए' हेट्टा दुगुणअसंखेज्जलोगे विरलिय उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं कादण दिण्णे एगेगपिसुलपमाणं पावदि । पुणो एदं विरलणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्हि किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स चदुब्भागं किंचूणमागच्छदि । पुणो एदम्मि उवरिमविरलणाए सोहिदे सुद्धसेसं भागहारो होदि । एदेण जहण्णहाणे भागे हिदे दोप
होता है । इसको पृथक् स्थापित कर फिर कम किये गये प्रक्षेपोंमें चूंकि अनन्त भागवृद्धिप्रक्षेप अप्रधान हैं, अतएव उनको छोड़कर असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपको असंख्यात लोकसे खण्डित करने पर उसमेंसे एक खण्ड असंख्यातभागवृद्धिपिशुल होता है । इस पिशुल और पूर्वके प्रक्षेपको ग्रहण कर अन्तिम ऊवंकको प्रतिराशि करके मिलानेपर द्वितीय असख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। यह जघन्य स्थान की अपेक्षा दो असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपों और एक पिशुलसे अधिक होता है।
शंका - यह अधिक द्रव्य जघन्य स्थानके कितनेवें भाग प्रमाण होता है ?
समाधान-ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि असंख्यात लोकोंका विरलन कर जघन्य स्थानको समखण्ड करके देने पर एक एक अंकके प्रति एक असंख्यातवृद्धि प्रक्षेप प्राप्त होता है। पुनः चूंकि दो प्रक्षेप अभीष्ट हैं अतः पूर्वके भागहारके अर्ध भागका भाग देनेपर एक अंकके प्रति दो दो प्रक्षेपोंका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः इनके ऊपर एक असंख्यातभागवृद्धि पिशुलका लाना अभीष्ट है, अतः पूर्व विरलनके नीचे दुगुणे असंख्यात लोकोंका विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक पिशलका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर एक अधिक इस विरलन प्रमाण जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक अंकका कुछ कम चतुर्थ भाग आता है फिर इसको उपरिम विरलनमेंसे कम करनेपर जो शेष रहे वह भागहार होता है । इसका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर दो प्रक्षेप और एक पिशुल प्राप्त होता है । इसको
१ अ-श्राप्रत्योः 'विरलणा', तापतौ 'विरलगा [ए]' इति पाठः ।
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