________________
४, २, ७, २०५.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१५१ पुव्वं व कायया । एवं णेयव्वं' जाव कंदयमेत्तअणंतभागवड्डि-हाणाणि समत्ताणि ति ।
असंखेजभागपरिवड्डी काए परिवड्डीए ? ॥२०५॥
एदं पुच्छासुत्तं जहण्णपरित्तासंखेजमादि कादण जाव उक्कस्समसंखेजासंखेज्जे त्ति एदाणि 'असंखेज्जसंखाहाणाणि अवलंबिय हिदं। एवं पुच्छिदे उत्तरसुत्तेण परिहारो उच्चदे
असंखेजलोगभागपरिवड्डीए एवदिया परिवढी ॥२०६॥
असंखेज्जलोग इदि वुत्ते जिणदिट्ठभावाणमसंखेज्जाणं लोगाणं गहणं कायव्वं, विसिट्ठोवएसाभावादो । पढमअणंतभागवाड्डिकंदयस्स चरिमअणंतभागवड्डिहाणे असंखेज्जलोगेहि भागे हिदे भागलद्धे तम्हि चेव पक्खित्ते पढमअसंखेज्जभागवड्डिाणमुप्पज्जदि । एसो पक्खेवो अविभागपडिच्छेदूणो ढाणंतरं होदि । एदं द्वाणंतरं हेडिमहाणंतरादो अणंतगुणं । को गुणगारो ? असंखेज्जलोगेहि ओवट्टिय स्वाहियसव्वजीवरासी । असंखेज्जभागवडिपक्खेवं ठविय एत्थतणफद्दयसलागाहि ओवट्टिदे असंखेज्जभागवविपक्खेवस्स फद्दयंतरं होदि । एदं फद्दयंतरं हेहिमपक्खेवफइयंतरादो अणंतगुणं । अणंतगुणतं कधं स्पर्द्धकान्तरकी परीक्षा पहिलेके ही समान करनी चाहिये। इस प्रकार काण्डक मात्र अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके समाप्त होने तक ले जाना चाहिये।
असंख्यातभागवृद्धि किस वृद्धिके द्वारा होती है ? ॥ २०४ ॥
यह पृच्क्षासूत्र जघन्य परीतासंख्यातसे लेकर उत्कृष्ट असंख्यातसंख्यात तक इन असंख्यात संख्याके स्थानोंका अवलम्बन करके स्थित है इस प्रकार पूछनेपर उत्तर सूत्रसे उसका परिहार कहते हैं
उक्त वृद्धि असंख्यात लोक भागवृद्धि द्वारा होती है। इतनी मात्र वृद्धि होती है । २०५॥
___'असंख्यात लोक' ऐसा कहनेपर जिन भगवानके द्वारा जिनका स्वरूप देखा गया है ऐसे असंख्यात लोकोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इस सम्बन्धमें विशिष्ट उपदेशका अभाव है। प्रथम अनन्तभागवृद्धिकाण्डकके अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें असंख्यात लोकोंका भाग देनेपर जो लब्ध हो उसको उसीमें मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धिका प्रथम स्थान उत्पन्न होता है। यह प्रक्षेप एक अविभागप्रतिच्छेदसे रहित होकर स्थानान्तर होता है। यह स्थानान्तर अधस्तन स्थानान्तरसे अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोकोंसे अपवर्तित एक अधिक सब जीवराशि है। असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपको स्थापित करके यहांकी स्पर्धकशलाकाओंसे अपवर्तित करनेपर असंख्यातभागवृद्धिप्रक्षेपका स्पर्धकान्तर होता है। यह स्पर्धकान्तर अधस्तन प्रक्षेपके स्पर्धकान्तरसे अनन्तगुणा है।
१ अप्रतौ "एवं कोणेयवं' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'असंखेज्जासंखा' इति पाठः। ३ ताप्रतौ'-परिवडी[ए, इति पाठः। ४ मप्रतिपाटोऽयम् । अ-आप्रत्योः 'पडिछेदाणो' ताप्रती 'पडिच्छेदाणं' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org