Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ७, २०१.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [११७
'जोगा' पयडि पदेसे हिदि-अणुभागे कसायदो कुणदि ।' त्ति। .
खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवज्जिय बे-छाबडीयो भमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुम्वेल्लणकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिय एगं ठिदि दुसमयकालं करेदूण अच्छिदजहण्णसंतकम्मियस्स वि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्साणुभागुवलंभादो सरिसधणियवुड्डीए अणुभागवुड्ढी पत्थि ति णबदे। एदेण सरिसधणिएहि बहुएहि संतेहि अणुभागबहुत्तं होदि ति एसो आग्गहो ओसारिदो होदि । असरिसधणियएगोलीयबहुत्तं णाणुभागबहुत्तस्स कारणं 'केवलणाणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं असादावेदणीयं वीरियंतराइयं च चत्तारि वि तुल्लाणि ति चउसद्विवदियउक्कस्साणुभागअप्पाबहुगादो णव्वदे । तं जहा-वीरियंतराइयस्स लदा समाणजहण्णफद्दयप्पहुडि एगट्ठाणविट्ठाण-तिट्ठाण-चउहाणाणि गंतूण उक्कस्सागुभागो हिदो। केवलणाण-केवलदसणावरणीयाणं पुण सव्वधादिजहण्णफद्दयप्पहुडि जाव दारुसमाणस्स अणते भागे गंतूण पुणो तिहाण-चउहाणाणि च गंतूण उकस्साणुभागो अवहिदो। एत्थ केवलणाणकेवलदसणा
'जीव योगसे प्रकृति और प्रदेशबन्धको तथा कषायसे स्थिति और अनुभागबन्धको करता है।'
क्षपित कर्माशिक स्वरूपसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त करके दो छयासठ सागरोपम कालतक भ्रमण करके मिथ्यात्वको प्राप्त हो दीर्घ उद्वेलनकाल द्वारा सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दो समय काल प्रमाण एक स्थिति करके स्थित हुए जघन्य सत्त्ववालेके भी चूँकि सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है अतएव इससे जाना जाता है कि समान धन युक्त वृद्धिसे अनुभागकी वृद्धि नहीं होती। इससे समान धनवाले बहुत परमाणुओंके होनेसे अनुभागकी अधिकता होती है, इस आग्रहका निराकरण होता है।
असमान धनवालोंकी एक पंक्तिकी अधिकता अनुभागकी अधिकताका कारण नहीं है, यह बात “केवलज्ञानावरणीय, केवलदर्शनावरणीय, असातावेदनीय और वीर्यान्तराय, ये चारों ही प्रकृतियाँ तुल्य [ व मिथ्यात्वंसे अनन्तगुणे हीन अनुभागसे युक्त ] हैं" इस चौंसठ पदवाले उत्कृष्ट अनुभाग सम्बन्धी अल्पबहुत्वसे जानी जाती है। यथा-वीर्यान्तरायके लता समान जघन्य स्पद्धकसे लेकर एकस्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थान जाकर उत्कृष्ट अनुभाग स्थित है। परन्तु केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीयके सर्वघाती जघन्य स्पर्धकसे लेकर दारु समान अनुभागका अनन्त बहुभाग जाकर, इससे आगे त्रिस्थान व चतुःस्थान जाकर उत्कृष्ट अनुभाग अवस्थित है। यहाँ केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीयके अनुभागस्पर्द्धकोंकी
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णादो। सुत्ताहिप्पाएण पुण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवज्जिय बेछावहिसागरोवमाणि भमिव दंसणमोहक्खवणं पारभिव जाव अपुव्वकरणपढमाणुभागकंदयस्स चरिमफाली ण पददि ताव सम्मत्तस्सुक्कस्समणुभागसंतकम्ममिदि । जयध. अ. प. ३६०
१ मूला. ५-४७. जोगा पयडि-पदेसा ठिदि-अणुभागा कसायदो होति । गो. क. २५७. २ अ-आप्रत्योः 'लद्धा' इति पाठः।
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