Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१४४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, २०४. भागहारो होदि त्ति घेत्तव्वं । ण च पुव्वुत्तदोसा एत्थ संभवंति, जिणवयणे दोसाणमवट्ठाणाभावादो। तं जहा-ण ताव परमाणुफद्दयवग्गणासण्णिदजहण्णट्ठाणे विहजमाणे वुत्तदोसाण संभवो, भावविहाणे अभावेहि संववहाराभावादो। ण तत्थतणदुसंजोगादिसु उत्तदोससंभवो वि, अभावे उत्तदोसाणं भावम्हि उत्तिविरोहादो । एदेणेव कारणेण भावाणुभागसंजोगेण दव्वफद्दयवग्गणासु जादजहण्णहाणम्हि उत्तदोसा ण संति । ण चउत्थसंजोगम्हि उत्तदोसा वि संभवंति, फद्दयंतरेसु णिसेगाणमणब्भुवगमादो ओकड्डक्कड्डणाहि हाणि-बड्डीणमणब्भुवगमादो जहण्णफद्दयाणि संकलणागारेण जहण्णहाणस्सुवरि पवेसिय बिदियट्ठाणमुप्पाइजदि त्ति पइजामावादो सव्वजीवरासिपडिभागेगपक्खेवम्मि अणंताणं फद्दयाणमुवलंभादो। ण च वढेि मोत्तूण पुचिल्लाणुभागस्स फद्दयत्तं, तत्थ तल्लक्खणाभावादो । तम्हा सव्वजीवरासी भागहारो हिरवजो त्ति दहव्यो ।
तदो सव्वजीवरासिं विरलिय जहण्णट्ठाणसण्णिदएगपरमाणुअविभागं समखंड कादण दिण्णे रूवं पडि पक्खेवपमाणं पावदि । तत्थ एगपक्खेवं घेत्तूण जहण्णट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते विदियमणंतभागवड्डिाणं होदि ।
जम्हि वा तम्हि वा पक्खेवे अणंतेहि फद्दएहि होदव्वं । एत्थ पुण एको वि फद्दओ
होनेसे सब जीवराशि ही भागहार होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। इसके अतिरिक्त इस पक्षमें दिये गये पूर्वोक्त दोष यहाँ सम्भव नहीं है, क्योंकि, जिनवचनमें दोषोंका रहना अशक्य है वह इस प्रकारसे-परमाणु. स्पर्द्धक और वर्गणा संज्ञावाले जघन्य स्थानको विभक्त करने में जो दोष बतलाये गये हैं वे सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, भावविधानमें अभावोंसे संव्यवहारका अभाव है। वहाँ द्विसंयोगादिक भंगोंमें बतलाये गये दोषोंकी भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि, अभावमें जो दोष बतलाये गये हैं उनके भावमें रहनेका विरोध है । इसी कारण भावानुभागसंयोगसे द्रव्य रूप स्पर्द्धकवर्गणाओंमें उत्पन्न हुए जघन्य स्थानमें उक्त दोष सम्भव नहीं है। चतुर्थ संयोगमें क दोष भी सम्भव नहीं हैं, क्योंकि स्पर्धकान्तरोंमें निषेकोंको स्वीकार नहीं किया गया है, अपकर्षण व उत्कर्षणके द्वारा हानि व वृद्धि नहीं स्वीकार की गई है, जघन्य स्पर्द्धकोंको संकलनके आकारसे जघन्य स्थानके ऊपर प्रवेश कराकर द्वितीय स्थान उत्पन्न कराया जाता है ऐसी प्रतिज्ञाका अभाव
सब जीवराशिके प्रतिभाग रूप एक प्रक्षेपमें अनन्त स्पर्द्धक पाये जाते है। और वृद्धिको छोड़कर पूर्वके अनुभागके स्पद्धकरूपता भी नहीं बनती, क्योंकि, उसमें उसके लक्षणका अभाव है। इसलिये सब जीवराशि भागहार निर्दोष है, ऐसा समझना चाहिये।
इस कारण सब जीवराशिका विरलनकर जघन्य स्थान संज्ञावाले एक परमाणुअविभागको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। उनमें एक प्रक्षेपको ग्रहण कर जघन्य स्थानको प्रतिराशि करके उसमें मिलानेपर अनन्तभागवृद्धिका द्वितीय स्थान होता है।
शंका-जिस किसी भी प्रक्षेपमें अनन्त स्पर्द्धक होने चाहिये । परन्तु यहाँ एक भी स्पर्द्धक
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