Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया जहा बंधजहण्णहाणम्हि परूविदा तहा परूवेदव्या। णवरि संतकम्मपरमाणुं मोत्तण णवकबंधपरमाणूणमुक्कड्डिदपरमाणूहि सह णिसेगविण्णासकमो परूवेदव्वो। संतस्स पुण णिसेगविण्णासकमो णत्थि, ओकडुक्कड्डणाहि तस्स बंधसमए रचिदसरूवेण अवहाणाभावादो।
एक्कम्हि परमाणुम्हि हिदअणुभागस्स हाणसण्णा ण घडदे, अणंतफद्दएहि वग्गणाहि विणा अणुभागट्ठाणासंभवादो १ ण एस दोसो, जहण्णबंधहाणस्स जहण्णफद्दयस्स जहण्णवग्गणमादि कादृण सव्ववग्गणाणं सव्वफद्दयाणं सव्वहाणाणं च एत्थेव उवलंभादो। जहा सदसंखा अक्खित्तएगादिसंखा तहा एदमणंतभागवडिहाणं पि सगकुक्खिणिक्खितअसेसहेहिमहाणं। तदो ण पुव्वुत्तदोसप्पसंगो त्ति । किं च, मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागो चउहाणीयो त्ति सुचसिद्धो। तस्स चउहाणसण्णा ण घडदे, सव्वधादित्तणेण एगहाणाभावादो। सम्मामिच्छत्ताणुभागस्स वि दुहाण ण जुञ्जदे, तस्स दारुसमाणहाणं मोत्तण अण्णहाणामावादो। अह देसघादिजहण्णफद्दयस्स जहण्णाविभागपडिच्छेदप्पहुडि सव्वाविमागपडिच्छेदा एग-दो-तिण्णि-चत्तारिहाणसण्णिदा सव्वे मिच्छत्तस्स उक्कस्सहाणम्मि अस्थि ति जदि तस्स चदुहाणचे उच्चदि तो एकम्हि हाणे हेडिमासेसट्ठाणफद्दयक
इस कारण जिस प्रकारसे जघन्य बन्धस्थानमें प्रदेशप्ररूपणा की गई उसी प्रकारसे यहाँ भी उसको प्ररूपणा करनी चाहिये । विशेषता इतनी है कि सत्कर्मपरमाणुको छोड़कर नवकबन्धपरमाणुओं सम्बन्धी निषेकोंके विन्यासक्रमकी प्ररूपणा उत्कर्षण प्राप्त परमाणुओंके साथ करनी चाहिये। परन्तु सत्त्वका निषेक विन्यासक्रम नहीं है, क्योंकि अपकर्षण व उत्कर्षणके साथ उसके पन्धसमयमें रचित स्वरूपसे रहनेका अभाव है।
शंका-एक परमाणुमें स्थित अनुभागकी स्थान संज्ञा घटित नहीं होती, क्योंकि, वर्गणाओंके बिना अनन्त स्पर्द्ध कोंसे अनुभागस्थानकी सम्भावना नहीं है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जघन्य बन्धस्थान और जघन्य स्पर्धककी जघन्य वर्गणासे लेकर सब वर्गणायें, सब स्पर्द्धक और सब स्थान यहाँ ही पाये जाते हैं। जिस प्रकार सौ संख्या एक आदि संख्याओं में गर्भित है, उसी प्रकार यह अनन्तभागवृद्धिस्थान भी अपनी कुक्षिके भीतर समस्त नीचेके स्थानोंको रखनेवाला है, इसलिये पूर्वोक्त दोषका प्रसंग नहीं आता है । दूसरे, मिथ्यात्व प्रकृतिका अनुभाग चतुःस्थानीय है यह सूत्रसिद्ध है। उसकी चतुःस्थान संज्ञा घटित नहीं होती, क्योंकि सर्वघाती प्रकृति होनेसे उसके एक स्थानका अभाव है। सम्यमिथ्यात्व प्रकृतिके अनुभागके भी द्विस्थानरूपता योग्य नहीं है, क्योंकि, उसके एक दार समान स्थानको छोड़कर अन्य स्थानोंका अभाव है। देशघाती जघन्य स्पद्ध कके जघन्य अविभागप्रतिच्छेदसे लेकर एक, दो, तीन व चार स्थान संज्ञायुक्त सब अविभागप्रतिच्छेद मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थानमें विद्यमान हैं, अतएव यदि उसके चतुःस्थानरूपता कही जाती है तो एक स्थानमें नीचेके समस्त स्थान स्पर्द्धक और वर्गणाओंके अस्तित्वको क्यों नहीं कहते; क्योंकि, उससे यहाँ
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