Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ७, २०४.
१४० ] सजिदे, संधी विणा मज्झे अणुभागखंडयघादस्स अभावादो । काओ अणुभागहाणसंधीयो णाम ? घछबड्डीयो । ण च ओकडणाए घादेदि, सरिसधणिय परमाणूणमणुभागवणार वावदाए तिस्से फद्दयंतरेसु विदफद्दयाणमभावे वावारविरोहादो । अध सव्वजीवरासिणा नद्दण्णट्ठाणे भागे हिदे असंखेज्जलोग मेत्तसव्वजीवरासीओ असंखेज्जलोग मेत्तअसंखेजा लोगा असंखेज्जलोग मेत्त उक्क स्ससंखेज्जाणि असंखेज्जलोग मेत्तअण्णोणत्थरासीयो च अण्णोष्णगुणिद मेत्तजहण्णबंध द्वाणाणि आगच्छति । तेसु वि जहणफद्दयपणेण कीरमाणेसु अणंताणि होंति त्ति सिद्धाणमणंतिम भागेण गुणिदेसु जहणफद्दयाणं पमाणं होदि । एदाणि फक्ष्याणि एगादिएगुत्तरकमेण जहण्णड्डाणचरिमफदयस्वरि पवेसिय' अनंतभागवड्ढिद्वाणं जदि उप्पाइज्जदि तं पि ण घडदे,
अनंतभागवड्डि पक्खेव अंतरे सव्वजीवेहि अनंतगुणमेचफद्दयाणं उत्पत्तिदंसणादो । तं पि कुदो वदे ? जण पक्खेवजहण्णफद्दयस लागाणमडुत्तर गुणिदाणमुत्तरुण' विगुणादिवसहिदाणं वग्गमूलं पुरिममूलेण विगुणुत्तरभाजिदल द्वे वि अणंतसव्व जीवरासीणमुवभादो | ण च एदं जुज्जदे, सव्वट्टाणाणं फक्ष्याणि वग्गणाओ परमाणू च सिद्धाणमणंतिमभागमेत्ता होंति ति सुत्तेण सह विरोहादो । तदो सव्वजीवरासी वड्डी भागहारो
का अभाव है । अनुभागस्थानसन्धियोंसे क्या अभिप्राय है ? उनसे अभिप्राय बन्धगत छह वृद्धियोंका है । दूसरे अपर्षणसे घात होता भी नहीं है, क्योंकि, समान धनवाले परमाणुओंके अनुभागके अपवर्तन ( अपकर्षण) में व्यापूत उसके स्पर्द्धकान्तरों में स्थित स्पर्द्धकोंके अभाव में व्यापृत होने का विरोध है । यहां शंका उपस्थित हो सकती है कि सब जीवराशिका जघन्य स्थान में भाग देने पर असंख्यात लोक मात्र सब जीवराशियों, असंख्यात लोक मात्र असंख्यात लोकों, असंख्यात लोक मात्र उत्कृष्ट संख्यातों और असंख्यात लोक मात्र अन्योन्याभ्यस्त राशियों को परस्पर गुणित करने - पर जो प्राप्त हो उतने मात्र जघन्य स्थान आते हैं । उनको भी जघन्य स्थानके स्पर्द्धकों के प्रमाणसे करनेपर चूंकि वे अनन्त होते हैं, अतएव सिद्धोंके अनन्तवें भागसे गुणित करनेपर जघन्य स्पर्द्धकोंका प्रमाण होता है । इन स्पर्द्धकोंको एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे जघन्य स्थान सम्बन्धी अन्तिम स्पर्द्धकके ऊपर प्रवेश कराकर यदि अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है तो वह भी घटित नहीं होता है, क्योंकि, एक अनन्तभागवृद्धिप्रक्षेपके भीतर सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्पर्धकोंकी उत्पत्ति देखी जाती है । वह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है ? चूंकि आठ व उत्तर से गुणित व उत्तर कम द्विगुणित आदिके वर्गसे सहित ऐसी जघन्य प्रक्षेप सम्बन्धी जघन्य स्पर्द्धकशलाकाओंके प्रक्षेपवर्गमूल से कम वर्गमूल में दुगुणे उत्तरका भाग देनेपर जो लब्ध होता है उसमें भी अनन्त सब जीवराशियां पायी जाती हैं; अतएव इसीसे वह जाना जाता है । परन्तु यह योग्य नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर स्थानोंके स्पर्द्धक, वर्गणायें और परमाणु सिद्धांके अनन्तवें भाग मात्र होते हैं, इस सूत्र के साथ विरोध आता है । इस कारण
१ मप्रतिपाठोऽयम् । श्र० श्रा० ताप्रतिषु, 'पदेसिय' इति पाठः । २ - प्रत्योः 'मुत्तरूवू'ण' इति पाठः ।
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