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४, २, ७, २०४.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [१४१ ण होदि त्ति घेत्तव्वं । सव्वजीवे हिंतो सिद्धेहितो च अणंतगुणहीणो अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणो जहण्णट्ठाणभागहारो होदि । एदेण जहण्णहाणे भागे हिदे अणंताणि फद्दयाणि अणंताओ वग्गणाओ कम्मपरमाणू च आगच्छति । तत्थ जहण्णहाणचरिमफद्दयाणि पक्खेवसलागमेत्ताणि घेत्तूण जहण्णहाणचरिमफद्दयस्स उवरि पंतियागारेण दृविय फद्दयसलागसंकलणं विरलिय गलिद 'सेसाविभागपडिच्छेदे समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि फद्दयविसेसो पावदि । तत्थ एगरूवधरिदं घेत्तण पढमपडिरासीए पक्खित्ते पक्खेवस्स फद्दयं होदि । दोरुवधरिदं घेत्तण विदियपडिरासीए पक्खित्ते विदियफद्दयं होदि । तिण्णिरूवधरिदं घेत्तण तदियपडिरासीए पक्खित्ते तदियफद्दयं होदि । एवं णेयव्वं जाव चरिमफद्दए त्ति । णवरि पक्खेवफद्दयसलागमेगरूवधरिदं घेत्तूण चरिमपडिरासीए पक्खित्ते चरिमफद्दयं होदि । तदो पुवुत्तासेसदोसाभावादो एसो अत्थो घेत्तव्यो त्ति ?
एत्थ परिहारो उच्चदे तं जहा-तुब्भेहि उत्तभागहारो सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तसंखो ण घडदे, अणंतभागपरिवड्डी सव्वजीवेहि वड्डिदा त्ति सुत्तेण सह विरोहादो। तदियाबहुक्यणतं सव्वजीवसई मोत्तण पंचमीए एगवयणंते गहिदे ण सुत्तविरोहो होदि
सब जीवराशि वृद्धिका भागहार नहीं होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। किन्तु सब जीवों और सिद्धोंसे अनन्तगुणा हीन तथा अभवसिद्धोंसे अनन्तगुणा जघन्य स्थानका भागहार होता है। इसका जघन्य स्थानमें भाग देनेपर अनन्त स्पर्द्धक, अनन्त वर्गणायें और अनन्त कर्मपरमाणु आते हैं। उनमें प्रक्षेपशलाकाओं प्रमाण जघन्य स्थानके अन्तिम स्पर्द्धकोंको ग्रहण करके जघन्य स्थान सम्बन्धी अन्तिम स्पर्द्धकके ऊपर पंक्तिके आकारसे स्थापित कर स्पर्द्धकशलाकाओंके संकलनका विरलन कर गलनेसे शेष रहे अविभागप्रतिच्छेदोंको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति स्पर्द्धकविशेष प्राप्त होता है। उसमेंसे एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको ग्रहण कर प्रथम प्रतिराशिमें मिलानेपर प्रक्षेपक स्पर्द्धक होता है। दो अंकोंके प्रति प्राप्त राशिको ग्रहण कर द्वितीय प्रतिराशिमें मिलानेपर द्वितीय स्पर्द्धक होता है। तीन अंकोंके प्रति प्राप्त राशिको ग्रहण कर तृतीय प्रतिराशिमें मिलानेपर तृतीय स्पर्द्धक होता है । इस प्रकार अन्तिम स्पर्द्धक तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि प्रक्षेपस्पर्धकशलाकाओं प्रमाण अंकोंके प्रति प्राप्त राशिको ग्रहण कर अन्तिम प्रतिराशिमें मिलानेपर अन्तिम स्पर्द्धक होता है । इस कारण पूर्वोक्त समस्त दोषोंसे रहित होनेके कारण इस मर्थको ग्रहण करना चाहिये ?
समाधान-यहां इस शंकाका परिहार कहते हैं । वह इस प्रकार है-तुम्हारे द्वारा कहा गया सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र संख्यावाला भागहार घटित नहीं होता है, क्योंकि, उसे माननेपर "अनन्तभागवृद्धि सब जीवोंसे वृद्धिको प्राप्त होती है। इस सूत्रके साथ विरोध प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि सूत्र में स्थित 'सव्वजीव' शब्दको तृतीयाका बहुवचनान्त न लेकर पंचमीका
१ अशाप्रत्योः 'गहिद' इति पाठः।
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