Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ७, २०१.
११६ ] होदि ति परुविदत्तादो' जोगवड्डि-हाणीयो अणुभागवड्डिहाणीणं कारणं ण होंति चि भणिदं होदि । कसायपाहुडे सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुकस्साणुभागो दंसणमोहक्खवगं मोत्तूण सव्वत्थ होदि ति परुविदत्तादो वा णव्वदे । खविदकम्मंसियलक्खणेण वा गुणिक मंसियलक्खणेण वा आगंतूण सम्मत्तं वडिवज्जिय बे-छावडीयो भमिय* दंसणमोहyoवकरणपढमाणुभागखंडओ जाव ण* पददि ताव सम्मत्त - सम्मामिच्छत्तामुकस्साणुभागो चैव होदि त्ति भणिदं । अण्णहा खविदकम्मंसियं मोत्तूण गुणिदकमंसिएण चैव सम्मत्ते गहिदे सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं उकस्साणुभागो होज्ज, तत्थ जोगबहुत्तुवलंभादो | एवं संते दंसणमोहक्खवगं मोत्तून सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमणुभागो उक्कस्सो वा अणुक्कस्सो सव्वत्थ होज्ज । ण च एवं, तहोवदेसाभावादो । तम्हा जोगो अणुभागकारणं ण होदि ति सिद्धं । वुत्तं च
होता है, ऐसा न कहकर 'उत्कृष्ट ही होता है' इस प्रकार की गई प्ररूपणासे निश्चित होता है कि योगकी वृद्धि व हानि अनुभागकी वृद्धि व हानिका कारण नहीं है, यह अभिप्राय है । अथवा कषायप्राभृतमें दर्शनमोहक्षपकको छोड़कर सर्वत्र सम्यक्त्व और सम्यङ् मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह जो कहा गया है उससे भी जाना जाता है कि योगवृद्धि अनुभागवृद्धिका कारण नहीं है । इसीसे क्षपितकर्नाशिक, स्वरूपसे अथवा गुणितकर्माशिक स्वरूपसे आकर सम्यक्त्व को प्राप्त कर दो छयासठ सागरोपम परिभ्रमण करके दर्शनमोहक्षपक अपूर्वकरणका जब तक प्रथम अनुभागकाण्डक पतित नहीं होता है. तब तक सम्यक्त्व व सम्यङ्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग ही होता है ऐसा कहा है | अन्यथा (योगवृद्धिको अनुभागवृद्धिका कारण माननेपर ) क्षपितकर्माशिकको छोड़कर गुणित कर्माशिक के द्वारा ही सम्यक्त्वके ग्रहण किये जानेपर सम्यक्त्व व सम्यङ् मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग होना चाहिये, क्योंकि, वहाँ योगकी अधिकता पायी जाती है। और ऐसा होनेपर दर्शन मोक्षपकको छोड़कर सर्वत्र सम्यक्त्व व सम्यङ् मिथ्यात्वका अनुभाग उत्कृष्ट अथवा अनुत्कृष्ट होना चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा उपदेश नहीं है । इसलिये योग अनुभागका कारण नहीं है, यह सिद्ध होता है । कहा भी है
१ ताप्रतौ 'परुविदत्तादो । जोग' इति पाठ: । २ ताप्रतौ 'कारणं [ण ] होंति' इति पाठः । वेयणासण्णियाससुत्तण्णहाणुववत्तीदो च ण जुज्जदे जहा अणुभागवडीए कसाओ चेत्र कारणं, ण जोगो त्ति । तं जहा - जस्स णामा- गोद-वेदरणीयवेदणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स भावदो णियमा उक्कस्सा त्ति वेयणासुतं । णेदं घडदे, खविदकम्मंसियसजोगिम्मि लोगपूरणाए वट्टमाणम्मि उक्कस्सारणुभागाभावादो । तदो ण जोगत्थोवत्तमणुभागत्थोवत्त कारणमिदि सद्दहेयव्यं । जयध . प. ३६० । ३ समत्त - सम्मामिच्छत्ताणमुकस्सारणुभाग संतकम्मं कस्स ? सुगममेदं । दंसणमोहक्खवयं मोत्तूण सव्वस्स उक्कस्सयं । जयध. अ. प. ३२१, । ४ ताप्रतौ 'भणि( मि ) य' इति पाठः । ५ श्रप्रतौ 'जाव 4 ण' इति पाठः । ६ प्रतिषु 'सव्व वृत्त' इति पाठः । ७ किं च ण परमाणु बहुत्तमणुभागबहुत्तस्स कारणं, सम्मत्त - सम्मामिच्छत्तुकस्साणुभागसामित्तसुतण्णहागुववत्तदो । तं जहा - दंसणमोहक्खवगं मोत्तूण सव्वम्हि उक्कस्समिदि सामित्तसुतं । णेदं घडदे, गुणिदकम्मंसियलक्खणेण [णा ] गंतून सम्मत्तं पडिवण्णस्स गुणसंकमचरिमसमए वट्टमाणस्स चेव सम्मत्तुकस्साणुभागदस
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