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४, २, ७, १९९] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे विदिया चूलिया [ १०३ समखंडं कादण दिण्णेसु विरलणरूवं पडि वग्गणविसेसपमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदं घेत्तण जहण्णवग्गणाए अवणिदे विदियवग्गणापमाणं होदि । एवमेगेगरूवधरिदमुप्पण्णुप्पण्णवग्णणाए अवणेदूण णेदव्वं जाव णिसे गभागहारस्स अद्धं गदं ति । तदित्थवग्गणाकम्मपदेसा पढमवग्गणकम्मपदेसेहिंतो दुगुणहीणा । पुणो एदं दुगुणहीणवग्गणकम्मपदेसपिंडमवहिदभागहारस्स समखंडं कादूण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स एगेगवग्गणविसेसपमाणं पावदि । णवरि पढमगुणहाणिविसेसादो इमो विसेसो दुगुणहीणो, अवहिदभागहारेण पुव्वं विहत्तरासीए अद्धस्स च्छिजमाणस्स उवलंभादो।
- एत्थ एगरूवधरिदं घेत्तूण विदियगुणहाणिपढमवग्गणाए अवणिदे तिस्से चेव तदणंतरविदियवग्गणपमाणं होदि । एवमेत्थ वि एगेगविसेसमवणेदूण जाव अवविदभागहारस्स अद्धमेत्तविसेसा झीणा त्ति तत्थ दुगुणहाणी होदि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाओ सिद्धाणमणंतभागमेत्ताओ दुगुणहाणीओ उप्पण्णाओ त्ति ।
__'एत्थ तिषिण अणियोगद्दाराणि-परूवणा पमाणमप्पाबहुगं चेदि । परूवणा गदा, एगगुणहाणिट्ठाणंतरस्स णाणागुणहाणिट्ठाणंतराणं च परंपरोवणिधाए चेव अस्थित्तसिद्धीदो।
जघन्य वर्गणाके प्रदेशोंको समखण्ड करके देनेपर विरलन अंकके प्रति वर्गणाविशेषका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः इसमेंसे एक अंकके ऊपर रखी हुई राशिको ग्रहण कर जघन्य वर्गणामेंसे कम कर देनेपर द्वितीय वर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार एक एक अंकके ऊपर रखी हई राशिको उत्पन्न-उत्पन्न ( उत्तरोत्तर ) वर्गणामेंसे कम करके निषेकभागहारका अर्ध भाग समाप्त होने तक ले जाना चाहिये । वहाँकी वर्गणाके कर्मप्रदेश प्रथम वर्गणाके कर्मप्रदेशोंकी अपेक्षा दुगुने हीन होते हैं। फिर इस दुगुने हीन वर्गणाके कर्मप्रदेशपिण्डको अवस्थित भागहारके समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक वर्गणाविशेषका प्रमाण प्राप्त होता है। विशेष इतना है कि प्रथम गुणहानिके विशेषसे यह विशेष दुगुना हीन है, क्योंकि अवस्थितभागहारके द्वारा पूर्वमें विभक्त हुई राशिका आधा भाग क्षीण होता हुआ देखा जाता है ।
- यहाँ एक अंकके ऊपर रखी हुई राशिको ग्रहण कर द्वितीय गुणहानिकी प्रथम वर्गणामेंसे कम कर देनेपर उसकी ही तदनन्तर द्वितीय वर्गणाका प्रमाण होता है। इस प्रकार यहाँपर भी एक एक विशेषको कम करके अवस्थितभागहारके अर्ध भाग प्रमाण विशेषोंके क्षीण होने तक वहाँ दुगुनी हानि होती है । इस प्रकार जानकर अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र दुगुणहानियों के उत्पन्न होने तक ले जाना चाहिये। . यहाँ तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । प्ररूपणा अवगत है. क्योंकि, एकगुणाहानिस्थानान्तर और नानागुणहानिस्थानान्तरोंका अस्तित्व परम्परोपनिधासे ही सिद्ध है।
१ त्रुटितोऽत्र प्रतिभाति पाठः ।
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