Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१०८] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, १६६. वि एसो' १६२ । एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे चउत्थवग्गणपमाणमागच्छदि ।
अधवा, दिवड्डखेत्तं ठविय एगेगवग्गणविसेसविक्खंभेण दिवड्डगुणहाणिआयामेण तिण्णिफालीयो पादिय तिरूवूणणिसेयभागहारमेत्तवग्गणविसेसविखंभदिवड्ढगुणहाणिायामखेत्तस्सुवरि ठविदे सादिरेयदोरूवाहियदिवड्डगुणहाणी भागहारोहोदि । सेसं जाणिय वत्तव्वं । एवमणेण विहाणेण ताव णेयव्वं जाव पढमगुणहाणीए रूवाहियमद्धं चडिदं ति । तदित्थवग्गणपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे दोगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा-दिवड्वगुणहाणिविरलणरूपमेत्तपढमवग्गणाओ तदित्थवग्गणपमाणेण अवहिरिज्जमाणाओ वारं पडि वारं पडि णिसेयभागहारतिण्णिचदुब्भागमेत्तवग्गणविसेसा अवहिरिज्जति । कुदो ? णिसेयभागहारतिण्णिचदुब्भागमेत्तवग्गणविसेसेहि तदित्थवग्गणुप्पत्तीदो । जे रूवं पडि उव्यरिदणिसेयभागहारचदुब्भागमेत्तवग्गणविसैसा ते वि तप्पमाणेण कस्सामो। तं जहा-णिसेयभागहारतिण्णिचदुब्भागमेत्तवग्ग
है-५७६ =२५% १२+२१ = १९२ । इसका समस्त द्रव्यमें भाग देनेपर चतुर्थ वर्गणाका प्रमाण आता है [३७२ १९२ = २०८]।
___ अथवा, डेढ़ गुणहानि प्रमाण क्षेत्रको स्थापितकर ( संदृष्टि मूलमें देखिये ) एक एक वर्गणाविशेषके विष्कम्भरूप व डेढ़ गुणहानि आयामरूप तीन फालियाँ फाड़कर उन्हें तीन अंक कम निषेकभागहार मात्र विस्तृत और डेढ़ गुणहानि आयत क्षेत्रके ऊपर रखने पर साधिक दो अंक अधिक डेढ़ गुणहानि भागहार होता है। शेष जानकर कहना चाहिये । इस प्रकार इस विधिसे प्रथम गुणहानिका एक अधिक आधा भाग जाने तक ले जाना चाहिये। वहाँकी वर्गणाके प्रमाणसे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर वह दो गुणहानिस्थानान्तरकालके द्वारा अपहृत होता है। यथा-डेढ़ गुणहानिके विरलन अंक प्रमाण प्रथम वर्गणाओंको वहाँकी वर्गणाके प्रमाणसे अपहृत करनेपर प्रत्येक एकके प्रति निषेकभागहारके तीन चतुर्थ भाग प्रमाण वर्गणाविशेष (१६४३४६=१६२) अपहृत होते हैं, क्योंकि, निषेकभागहारके तीन चतुर्थ भाग प्रमाण वर्गणाविशेषोंसे वहाँकी वर्गणा उत्पन्न होती है।
तथा जो प्रत्येक अंकके प्रति निषेकभागहारके चतुर्थ भाग प्रमाण वर्गणाविशेष शेष रहते हैं उन्हें भी उसके प्रमाणसे करते हैं। यथा-निषेकभागहारके तीन चतुर्थ भाग प्रमाण वर्गणा
१ अप्रतौ होदि सो विसेसो १६३, आप्रतौ ‘होदि १६२ इति पाठः ।
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