Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे वेयणाखंड
७८ ]
उस्सासमणंतगुणं । अगुरुल हुवमणंतगुणं ।
[ पत्थविहायगई ] अनंतगुणा । तसादिदसजुगलस्स सादासादभंगो | सव्वमंदाणुभागं णीचागोदं । उच्चागोदमणंतगुणं । सव्वमंदाणुभागं दाणंतराइयं । एवं परिवाडी उवरिमचत्तारि वि अनंतगुणा । एवं सत्थाणजहण्णप्पाबहुगं समत्तं । पढमा चूलिया
सव्वमंदाणुभागा
[ ४, २, ७, ७-८ गा०. अपत्यविहाय गई ।
संपत्ति उवरि चूलियं भणिस्सामो । तं जहा -
सम्मत्पत्ती विय सावय- विरदे अनंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते ॥ ७ ॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा | तव्विवरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेडीओ' ॥ ८ ॥ एदाओ दो विगाहाओ एक्कारसगुणसेडीयो णिज्जरमाणपदेसकालेहि विसेसिदूण सर्वमन्द अनुभागसे सहित है। उससे परघात अनन्तगुणा है। उससे उच्छ्वास अनन्तगुणा है | उससे अगुरुलघु अनन्तगुणा है ।
प्रशस्त विहायोगति सर्वमन्द अनुभागसे सहित है । उससे प्रशस्त विहायोगति अनन्तगुणी है | त्रसादिक दस युगलों के अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा साता व असाता वेदनीयके समान है । गोत्र सर्वमन्द अनुभागसे सहित है। उससे उच्च गोत्र अनन्तगुणा है ।
दानान्तराय सर्वमन्द अनुभागसे सहित है, इस प्रकार परिपाटी क्रमसे आगेको चार अन्तराय प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हैं ।
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इस प्रकार जघन्य स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । अब यहाँ से आगे चूलिकाको कहते हैं । वह इस प्रकार है
सम्यक्त्वोत्पत्ति अर्थात् सातिशय मिथ्यादृष्टि, श्रावक अर्थात् देशत्रती, विरत अर्थात् महाव्रती, अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षपक, चरित्रमोहका उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह और स्वस्थान जिन व योगनिरोध में प्रवृत्त जिन इन स्थानोंमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । परन्तु निर्जराका काल उससे विपरीत अर्थात् आगेसे पीछे की ओर बढ़ता हुआ है जो संख्यातगुणित श्रेण रूप है ।। ७-८ ।।
ये दोनों ही गाथायें निर्जीर्ण होनेवाले प्रदेश और कालसे विशेषित ग्यारह गुणश्रेणियों का कथन करती हैं ।
१ त. सू ६-४५ | जयध श्र. ३६७ । गो. जी. ६७. सम्मत्तप्पत्तासावय- विरए संजोयणाविणासे य । दंसणमोहक्खगे कसायउवसामगुवसंते ॥ खवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असंखगुणसेढी । उदग्रो तव्विवरी कालो संखेजगुणसेडी ॥ क. प्र. ६, ८-६.
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