Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, १७८. अणंताणुबंधी विसंजोएतस्स गुणसेडिगुणो असंखेजगुणो॥ १७८॥ ___सत्थाणसंजदउक्कस्सगुणसेडिगुणगारादो असंजदसम्मादिहि-संजदासंजद-संजदेसु अणंताणुबंधिं विसंजोएतस्स जहण्णगुणसेडिगुणगारो असंखेजगुणो । एत्थ सव्वत्थ गुण. सेडिगुणगारो त्ति वुत्ते गलमाणपदेसगुणसेडिगुणगारो णिसिंचमाणपदेसगुणसे डिगुणगारो च घेत्तव्यो । कधमेदं लब्भदे ? गुणसेडिगुणो ति सामण्णणिदेसादो। संजमपरिगामेहितो अणंताणुवंधि विसंजोएंतस्स असंजदसम्मादिहिस्स परिणामो अणंतगुणहीणो, कधं तत्तो असंखेजगुणपदेसणिज्जरा जायदे ? ण एस दोसो, संजमपरिणामेहिंतो अणंताणुबंधीणं विसंजोजणाए कारणभूदाणं सम्मत्तपरिणामाणमणंतगुणत्तुवलंभादो। जदि सम्मत्तपरिणामेहि अणंताणुबंधीणं विसंजोजणा कीरदे तो सव्वसम्माइट्ठीसु तब्भावो' पसज्जदि त्ति वुत्ते ण, विसिद्धेहि चेव सम्मत्तपरिणामेहि तव्विसंजोयणभुवगमादो त्ति ।
उससे अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करनेवालेका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१७॥
स्वस्थान संयतके उत्कृष्ट गुणश्रेणिगुणकारकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत जीवोंमें अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाले जीवका जघन्य गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है।
यहाँ सब जगह 'गुणश्रेणिगुणकार' ऐसा कहनेपर गलमान प्रदेशोंका गुणश्रेणिगुणकार और निसिंचमान प्रदेशोंका गुणश्रेणिगुणकार ग्रहण करना चाहिये ।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-यह 'गुणश्रेणिगुणकार' ऐसा सामान्य निर्देश करनेसे जाना जाता है।
शंका-संयमरूप परिणामोंकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टिका परिणाम अनन्तगुणा हीन होता है, ऐसी अवस्थामें उससे असंख्यातगुणी प्रदेश निर्जरा कैसे हो सकती है?
___समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संयमरूप परिणामोंकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजनामें कारणभूत सम्यक्त्वरूप परिणाम अनन्तगुणे उपलब्ध होते हैं।
शंका-यदि सम्यक्त्वरूप परिणामोंके द्वारा अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजना की जाती है तो सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंमें उसकी विसंयोजनाका प्रसंग आता है ?
समाधान-ऐसा पूछने पर उत्तरमें कहते हैं कि सब सम्यग्दृष्टियों में उसकी विसंयोजना का प्रसंग नहीं आ सकता, क्योंकि, विशिष्ट सम्यक्त्वरूप परिणामांके द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषायोंकी विसंयोजना स्वीकार की गई है।
१ प्रतिषु 'तदभावो' इति पाठः। २ प्रतिषु 'सव्वत्थ' इति पाठः ।
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