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८०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, १७५ गा०. कालो' एदेसिं गुणसेडिणिक्खेवद्धाणं पुण विवरीदं होदि । उवरिदो हेट्ठा वड्डमाणं गच्छदि त्ति भणिदं होदि। पुव्वं व असंखेजगुणसेडीए पत्तवुड्डीए पडिसेहटुं 'संखेजगुणाए सेडीए' ति भणिदं । एवं दोगाहाहि परविदंएकारसगुणसेडीणं बालजणाणुग्गहढे पुणरविपरूवणं कीरदे त्ति उवरिमसुत्तं भणदि
सव्वत्थोवो दंसणमोहउवसामयस्स गुणसेडिगुणो ॥१७॥
गुणो गुणगारो, तस्स सेडी ओली पंती गुणसेडी णाम । दंसणमोहुवसामयस्स पढमसमए णिज्जिण्णदव्वं थोवं । विदियसमए णिज्जिण्णदव्बमसंखेज्जगुणं । तदियसमए णिज्जिण्णदव्वमसंखेज्जगुणं । एवं णेयव्वं जाव दंमणमोहउवसामगचरिमसमओ त्ति । एसा गुणगारपत्ती गुणसेडि त्ति भणिदं होदि । गुणसेडीए गुणो गुणसेडिगुणो, गुणसेडिगुणगारोत्ति भणिदं होदि । एदस्स भावत्थो—सम्मत्तुप्पत्तीए जो गुणसेडिगुणगारो सव्वमहंतो सो' वि उवरि भण्णमाणजहण्णगुणगारादो वि थोवो त्ति भणिदं होदि ।
संजदासंजदस्स गुणसेडिगुणो असंखेज्जगुणो ॥१७६॥
संजदासंजदस्स गुणसेडिणिज्जराए जो जहण्णओ गुणगारो सो पुग्विल्ल उक्कस्सगुणगारादो असंखेज्जगुणो । 'तव्विवरीदो कालो' परन्तु इनका गुणश्रेणिनिक्षेप अध्वान उससे विपरीत है, अर्थात् आगेसे पीछेकी ओर वृद्धिंगत होकर जाता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। पूर्वके समान असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे प्राप्त वृद्धिका प्रतिषेध करनेके लिये 'संखेज्जगुणाए सेडीए' यह कहा है।
इस प्रकार दो गाथाओंके द्वारा कही गई ग्यारह गुणश्रेणियोंका मन्दबुद्धि शिष्योंका अनुग्रह करनेके लिए पुनः दूसरी बार कथन करते हैं । इसके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
दर्शनमोहका उपशम करनेवालेका गुणश्रेणिगुणकार सबसे स्तोक है ॥१७॥
गुण शब्दका अर्थ गुणकार है। तथा उसकी श्रेणि, आवलि या पंक्तिका नाम गुणश्रेणि है। दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवका प्रथम समयमें निर्जराको प्राप्त होनेवाला द्रव्य स्तोक है। उससे द्वितीय समयमें निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा है । उससे तीसरे समयमें निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा है। इस प्रकार दशनमोह उपशामकके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । यह गुणकारपंक्ति गुणश्रेणि है यह उक्त कथनका तात्पय है । तथा गुणश्रेणिका गुण गुणश्रेणिगुण अर्थात् गुणश्रेणिगुणकार कहलाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसका भावार्थ यह है-सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें जो गुणश्रेणिगुणकार सर्वोत्कृष्ट है वह भी आगे कहे जानेवाले गुणकारकी अपेक्षा स्तोक है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
उससे संयतासंयतका गुणश्रेणिगुणकार असंख्यातगुणा है ॥१७६॥
संयतासंयतकी गुणश्रेणिनिर्जराका जो जघन्य गुणकार है वह पूर्वके उत्कृष्ट गुणकारकी अपेक्षा असंख्यातगुणा है।
१ अ-काप्रत्योः 'से' इति पाठः ।
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