Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ७, ३ गा. सायाणं गहणं । एत्थ अणंतगुणहीणाहियारो पादेक्कमणुवट्टावेदव्यो । तं जहा-णवंसयवेदो अर्णतगुणहीणो। अरदी अणंतगुणहीणा। सोगो अणंतगुणहीणो। भयमणंतगुणहीणं । दुर्गुच्छा अणंतगुणहीणा ति । 'णिद्दाणिद्दा पयलापयला णिद्दा य पयला य' एदाओ पयडीओ कमेण अणंतगुणहीणाओ, पादेक्कमणंतगुणहीणाहियारस्स संबंधादो।।
(अजसो णीचागोदं णिरय-तिरिक्खगइ इत्थि पुरिसो य । रदि-हस्सं देवाऊ णिरयाऊ मणय-तिरिक्खाऊ ॥३॥
एदिस्से सुत्ततदियगाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा–'अजसो णीचागोदं'इदि वुत्ते अजसकित्तिणीचागोदाणमणुभागेण समाणाणं अणंतगुणहीणाहियारेण समुदाएण बज्झमाणाणं गहणं । 'णिरय'इदि वुत्ते णिरयगदी घेत्तव्वा । 'तिरिक्खगइ-इत्थिवेद-पुरिसवेद-रदि हस्स-देवाउ-णिरयाउ-मणुस्साउ-तिरिक्खाऊ जहासंखाए अणंतगुणहीणा त्ति घेत्तव्वा ।
एदाहि तीहि गाहाहि परू विदचउसहिपदियउक्कस्साणुभागमहादंडयअप्पाबहुगस्स मंदमेहाविजणाणुग्गहाय अत्थपरूवणमुवरिमसुत्तं भणदि
एत्तो उक्कस्सओ चउसहिपदियो महादंडओ कायव्वो भवदि॥६५॥
यहाँ अनन्तगुणहीन पदके अधिकारकी अनुवृत्ति प्रत्येकमें करानी चाहिये । यथा-नपुंसक वेद अनन्तगुणा हीन है। उससे अरति अनन्तगुणी हीन है । उससे शोक अनन्तगुणा हीन है। उससे भय अनन्तगुणा हीन है। उससे जुगुप्सा अनन्तगुणी हीन है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा और प्रचला ये प्रकृतियाँ क्रमशः उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन हैं, क्योंकि, अनन्तगुणहीन पदके अधिकारका सम्बन्ध इनमेंसे प्रत्येकमें है।
अयश कीर्ति और नीचगोत्र ये दो, नरकगति, तिर्यग्गति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, रति, हास्य, देवायु, नारकायु, मनुष्यायु और तिर्यगायु ये प्रकृतियाँ अनुभागकी अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हीन हैं ॥ ३॥
इस तृतीय गाथासूत्र का अर्थ कहते हैं। यथा-'अजसो णीचागोदं' ऐसा कहनेपर अनुभागकी अपेक्षा समान और अनन्तगुणहीन पदके अधिकारकी अपेक्षा समुदायरूपसे बँधनेवाली अयशःकीर्ति और नीचगोत्र प्रकृतियोंका ग्रहण होता है । 'णिरय' इस पदसे नरकगतिका ग्रहण करना चाहिए। तिर्यग्गति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, रति, हास्य, देवायु, नरकायु, मनुष्यायु और तिर्यगायु ये प्रकृतियाँ यथाक्रमसे अनन्तगुणी हीन हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
इन तीन गाथाओं द्वारा कहे गए चौंसठ पदवाले उत्कृष्ट अनुभागके अल्पबहुत्व सम्बन्धी महादण्डकका मन्दबुद्धि शिष्योंका अनुग्रह करनेवाले अर्थका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
यहाँसे आगे चौंसठ पदवाला उत्कृष्ट महादण्डक करना चाहिये ॥ ६५ ॥
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