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वेण महाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं
४, २, ७, १७४ ]
अणुभागो अनंतगुणो पय डिविसेसेण ।
जसकिची उच्चागोदं च दो वि तुल्लाणि अनंतगुणाणि ॥ १७० ॥ एदेसिं दोपणं पि पंचिदिएसु अइतिव्वसंकि लिट्ठमिच्छाइट्ठीसु जदि वि जहणणं जादं तो व तत्तो देसिमणुभागो अनंतगुणो, सुहपयडीणं बहुवाणुभागबंधोसरणाभावादो । सादावेदणीयमणंतगुणं ॥ १७१ ॥
एदस्स वि जहण्णाणुभागबंधस्स सव्वसंकि लिट्टो मिच्छाइट्ठी चैव सामी, किंतु डिविसेसेण अनंतगुणो ।
णिरयाउ अमणंतगुणं ॥ १७२ ॥
कुदो १ साभावियादो । देवाउअमणंतगुणं ॥ १७३ ॥ कारणं सुगमं । आहारसरीरमणंतगुणं ॥ १७४ ॥
पबद्धतादो |
अप्पम संजदेण तप्पा ओग्गविसुद्वेण एवं जहण्णयं चउसद्विपदियं परत्थाणप्पा बहुगं समत्तं । संपहि एदेण सूचिदसत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्सामो - सव्वमंदाणुभागं मणपञ्जव
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प्रकृतिविशेष होने से अनन्तगुणा है ।
उससे यशःकीर्ति और उच्चगोत्र दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हैं ॥ १७० ॥ यद्यपि अति तीव्र संक्लेशयुक्त पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंमें इन दोनों ही प्रकृतियोंका जघन्य बन्ध होता है, तो भी असाता वेदनीयकी अपेक्षा इनका अनुभाग अनन्तगुणा है; क्योंकि, शुभ प्रकृतियों के बहुत अनुभाग बन्धका अपसरण नहीं होता ।
उनसे सातावेदनीय अनन्तगुणी है ॥ १७१ ॥
इसके भी जघन्य अनुभागबन्धका स्वामी सर्वसंक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि जीव ही है, किन्तु प्रकृतिविशेष होने से वह उक्त दोनों प्रकृतियोंसे अनन्तगुणी है ।
उससे नारका अनन्तगुणी है ॥ १७२ ॥
क्योंकि, ऐसा स्वभाव है ।
उससे देवायु अनन्तगुणी है ।। १७३ ।।
इसका कारण सुगम है ।
उससे आहारक शरीर अनन्तगुणा है || १७४ ॥
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क्योंकि, वह तत्प्रागोग्य विशुद्धिको प्राप्त अप्रमत्तसंयत जीवके द्वारा बांधा गया है । इस प्रकार चौंसठ पदवाला जघन्य पेरस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ।
अब इससे सूचित होनेवाले स्वस्थान अल्पबहुत्वको कहते हैं - मन:पर्ययज्ञानावरणीय
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