Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, ७, ५ गा०.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं
[६३ 'अचक्खुणिद्देसो अचक्खुदसणावरणीयगहणणिमित्तो। 'भोग"णिद्देसो भोगंतराइयस्स परूवओ। 'चक्खं च इदि णिद्देसो चक्खुदंसणावरणीयग्गहणणिमित्तो। किमटुं 'च' सद्दुच्चारणं कीरदे ? सुदणाणावरणीय-अचक्खुदंसणावरणीय-भोगंतराइयं च एदाणि तिण्णि वि कम्माणि जहा अणुभागेण अण्णोण्णं समाणाणि तहा चक्खुदंसणावरणीयं ण होदि ति जाणावणटुं कीरदे। 'आभिणियोहिय'णिदेसेण आभिणियोहियणाणावरणीयं घेत्तव्यं । 'परिभोग'वयणेण परिभोगंतराइयं घेत्तव्वं । 'ण व च' इदि चसद्देण एदासिमणंतरादो पयडीणमणुभागो सरिसो ति सूचिदो। 'विरिय इत्ति भणिदे विरियंतराइयस्स गहणं । 'णव णोकसाया'त्ति वुत्ते णवण्णं णोकसायाणं गहणं कायव्वं । एत्थ सव्वत्थ अणंतगुणसदस्स अज्झाहारो कायव्यो। (के-प-णि-अट्ट-त्तिय-अण-मिच्छा-ओ-वे-तिरिक्ख-मणुसाऊ।
तेयाकम्मसरीरं तिरिक्ख-णिरय-देव-मणुवगई ॥ ५ ॥
केवलणाणावरणीय-केवलदंसणावरणीयाणं गहणटुं 'के' इति णिद्देसो कदो। ताणि च दो वि सारिसाणि त्ति जाणावणटुं 'के' इदि एगसद्देण णिदिहाणि । 'प'इति उत्ते
दर्शनावरणीयका ग्रहण करने के निमित्त 'अचक्खु' पदका निर्देश किया है । 'भोग' पदका निर्देश भोगान्तरायका प्ररूपक है । 'चक्खं च' यह निर्देश चक्षुदर्शनावरणीयका ग्रहण करनेके निमित्त है।
शंका-'चक्खं च' यहाँ 'च' शब्दका उच्चारण किसलिये किया है।
समाधान-जिस प्रकार श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय ये तीन प्रकृतियाँ अनुभागकी अपेक्षा परस्पर समान हैं उस प्रकार चक्षुदर्शनावरणीय समान नहीं है, यह जतलानेके लिये 'च' शब्दका निर्देश किया है।
'आभिणिबोहिय' पदके निर्देशसे आभिनिबोधिकज्ञानावरणीयका ग्रहण करना चाहिये । 'परिभोग' इस वचनसे परिभोगान्तरायका ग्रहण करना चाहिये। 'णव च' यहाँ किये गये 'च' शब्दके निर्देशसे इन प्रकृतियोंसे अव्यवहित प्रकृतियोंका अनुभाग सदृश है, यह सूचना की गई है। 'विरिय' कहनेपर वीर्यान्तरायका ग्रहण किया गया है। 'णव णोकसाया' ऐसा कहनेपर नौ नोकषायोंका ग्रहण करना चाहिये । यहाँ सर्वत्र 'अनन्तगुण' शब्दका अध्याहार करना चाहिये।
केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण, प्रचला, निद्रा, आठ कषाय, स्त्यानगृद्धि आदि तीन, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, मिथ्यात्व, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, तिर्यग्गति, नरकगति, देवगति और मनुष्यगति ये प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणी हैं ॥ ५ ॥
केवलज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय का ग्रहण करनेके लिये 'के' ऐसा निर्देश किया है। वे दोनों ही प्रकृतियाँ सदृश हैं, यह जतलानेके लिये 'के' इस एक ही शब्दके द्वारा
१ अप्रती 'श्रोध' इति पाठः ।
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