Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४,२, ७.१ गा०.] वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे अप्पाबहुअं
[४१ इदि वुत्ते कम्मइयसरीरं घेत्तव्वं । 'ते' इदि भणिदे तेयासरीरस्स गहणं । 'आ'इदि वुत्ते
आहारसरीरस्स गहणं । 'वे' इदि वुत्ते वेउव्वियसरीरस्स गहणं । 'मणु'णिद्देस्सो मणुसगदिगहणट्ठो । अणंतगुणहीणाओ एदाओ उत्तसव्वपयडीओ अण्णोएणं पेक्खिदण जहाकमेण अणंतगुणहीणाओ । एसो 'अणंतगुणहीण'णिद्देसो उवरि वि 'मंड्रगुप्पदेण अणुवट्टदे, कत्थ वि विरामादो । 'ओ'णिद्देसो ओरालियसरीरगहणट्ठो । 'मिच्छा'णिदेसो मिच्छत्तकम्मगहणणिमित्तो। 'के त्ति णिदेसो केवलणाणावरणीय-केवलदसणावरणीयाणं गहणणिमित्तो। 'असाद'णिद्देसो असादावेदणीयगहणट्ठो। 'वीरिय'णिद्देसो वीरियंतराइयगहण णिमित्तो। एदासि चदुण्णं पयडीणमणुभागो सरिसो । एत्थ अणंतगुणहीणाणुवुत्तीए अभावादो । तदणणुवुत्तीवि कुदो णव्वदे ? एदस्स गाहासुत्तस्स विवरणभावेण रचिदउवरिमचुण्णिसुत्तादो। 'अणंताणु' ति णिदेसो अणंताणुवंधियचउक्कगहणट्ठो । एत्थ लोभाणमागे अणंतगुणहीणत्तमणुवदे णोवरिमेसु । तेसु वि लोभादो माया विसेसहीणा कोधो विसेसहीणो माणो विसेसहीणो त्ति उवरिमसुत्ते परूविजमाणत्तादो। "संजलणा'
दे' ऐसा कहनेसे देवगतिका ग्रहण करना चाहिये। 'क' ऐसा कहनेपर कार्मण शरीरका ग्रहण करना चाहिये । 'ते' ऐसा कहनेपर तैजस शरीरका ग्रहण करना चाहिये । 'आ' ऐसा कहनेपर आहारक शरीरका ग्रहण करना चाहिये । 'वे' ऐसा कहनेपर वैक्रियिक शरीरका प्रहण करना चाहिये ।'मणु' पदका निर्देश मनुष्यगतिका ग्रहण करनेके लिये किया गया है । ये उपर्युक्त सब प्रकृतियाँ उत्तरोत्तर एक दूसरेकी अपेक्षा क्रमसे अनन्तगुणी हीन हैं। यह अनन्तगुणहीन पदका निर्देश मेंढक उत्पतन न्याससे आगे भी अनुवृत्त होता है, क्योंकि, कहींपर विराम देखा जाता है। 'ओ' पदका निर्देश औदारिक शरीरका ग्रहण करनेके लिये किया है।
'मिच्छा' यह निर्देश मिथ्यात्व कर्मका ग्रहण करनेके निमित्त है । 'के' पदका निर्देश केवल ज्ञानावनण व केवलदर्शनावरणका प्रहण करने के लिये किया है। 'असाद' पदका निर्देश असाता वेदनीयका ग्रहण करनेके लिये है । 'वीरिय' पदका निर्देश वीर्यान्तरायका ग्रहण करनेके निमित्त है। इन चार प्रकृतियोंका अनुभाग समान है क्योंकि, यहाँ 'अनन्तगुणहीनता' की अनुवृत्तिका अभाव है।
शंका-उसकी अननुवृत्तिका भी परिज्ञान किस प्रमाणसे होता है ?
समाधान-इस गाथासूत्रके विवरणरूपसे रचे गये आगेके चूर्णिसूत्रसे उसका परिज्ञान होता है।
'अणंताणु' पदका निर्देश अनन्तानुबन्धिचतुष्टयका ग्रहण करनेके लिये है। यहाँ लोभके अनुभागमें अनन्तगुणहीन पदकी अनुवृत्ति होती है। आगेकी कषायोंमें उसकी अनुवृत्ति नहीं होती। उनमें भी लोभसे माया विशेष हीन है, इससे क्रोध विशेष हीन है, इससे मान विशेष हीन है
१ प्रतिषु 'मंडूगप्पु देण' इति पाठः । २ अप्रतौ 'तदणाणुवृत्ती' इति पाठः ३ प्रतिषु णोवरिमसुत्तेसु इति पाठः ४ अप्रतौ-त्तादो 'त्ति उत्ते इति पाठः। मप्रतौ-तादो संजवा ति उत्ते इति पाठः।
छ. १२-६
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