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इतने में घण्टी के बजने की आवाज सुन पड़ी।
"ओह, सन्निधान और पट्टमहादेवी आ रहे हैं, मालूम पड़ता है। यह कहकर पद्मलदेवी उठकर द्वार तक आयी तो देखा कि वे ही आये हैं और साथ में हेग्गड़े मारसिंगय्या और हेग्गड़ती माचिकब्बे भी आये हैं।
हेगड़ेजी इतने कमजोर हो गये थे कि पहचाने नहीं जा सकते थे। माचिकव्ये में विशेष परिवर्तन तो नहीं हुआ था सिवा इसके कि सिर के बाल कुछ अधिक पक गये थे। सबने अन्दर प्रवेश किया।
"हेग्गड़े और हेगड़ती दोनों आ गये। मन को तृप्ति मिल गयी। मुझे इस बात की बड़ी चिन्ता हो रही थी कि आप लोगों को देखे बिना ही कहीं आँख न मूंद लूँ।" एचलदेवी बोली।
"मालिक का स्वास्थ्य अच्छा न रहा, इसलिए आने में विलम्ब हो गया।" माचिकब्बे ने धीमे स्वर में कहा।
एचलदेवी ने कहा, "हेग्गड़ेजी, आप बहुत कमजोर हो गये हैं। देख लिया। अम्माजी, पहले इनके आराम के लिए व्यवस्था कर दो। हेगड़ेजी, आप भी विश्राम करें। पद्मलदेवी के आने के बाद मुझमें नये जीवन का संचार हुआ है। आराम से सब बातें बाद को होंगी।"
माचिकब्धे का दुःख दूना हो गया। वह हिचकी ले-लेकर रोने लगी। "माँ, उठो, सब ठीक हो जाएगा।" शान्तलदेवी ने कहा।
"भगवान् को मेरी इतनी परीक्षा नहीं करनी चाहिए थी। अम्माजी, वहाँ से हट भी नहीं सकती थी, यहाँ आये बिना रह भी नहीं सकती थी। ऐसी दुविधा में मैंने ये दिन कैसे काटे, ईश्वर ही जानता है।" माचिकब्बे ने कहा।
"अब उन सबकी याद मत करो।"
"जिस घर का अन्न खाया, उसकी सेवा ऐन वक़्त पर नहीं कर सकी-इसका दुःख है, अम्माजी
"मैं थी न आप लोगों की तरफ से। अब उठो।" कहकर माता-पिता को साथ लेकर शान्तलदेवी वहाँ से चली गयीं।
एचलदेवी का स्वास्थ्य काफी सुधरता गया। जिन-जिन की उपस्थिति चाहती थीं वे सभी उपस्थित थे। सब लोग उन पर प्रेम की वर्षा भी करते रहे। इस सबसे उनमें एक नयी चेतना ही आ गयी थी। हेगड़े-दम्पती के साथ प्रधान गंगराज आये थे। महामातृश्री का स्वास्थ्य अब सुधर चला था। इसलिए वे उनसे तथा सन्निधान से अनुमति लेकर राजधानी की तरफ रवाना हुए। सोमनाथ पण्डित ने ही गुणराशि पण्डित को ठहरा लिया था, इसलिए वे ठहर गये।
हेग्गड़ेजी का भी स्वास्थ्य सुधरने लगा। राजमहल में आनन्द का पारावार
44 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन