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० * श्री लॅबेचू समाजका इतिहास * बन सकती। ये खरौवा जातिमें दीक्षित हुये थे । इन्हींके शिष्य महेन्द्रभूषण हुये। इनके शिष्य राजेन्द्रभपणजी हुये। इन्हीं विश्वभुषणादि आचार्य भट्टारकों की प्रतिष्ठा कराई हुई प्रतिमा आरा शहरमें है। वहाँ से तीन कोस पर मसाढ़ नामका ग्राम है आराका पुराना नाम चक्रपुर है और इसी मसाढ़का पुराना नाम महासार है जो प्रतिमाओं पर अङ्कित है। महासारका इतिहास इस प्रकार है कि मारवाड़के राठोर क्षत्रिय वसते हैं और इनके वंशधर खरगसी विरमसी* नामके २ आदमी अपने पुरुखाओंके १४ पीढ़ी बाद इस देशमें आये। ये लोग जैन क्षत्रिय थे। इनका समय आज से ५०० वर्ष पहिलेका मालूम होता है क्योंकि जैनमूर्तियोंपर विक्रम सम्बत् १४४३ अर्थात् १३८३ AD का लेख अङ्कित है। इससे मालूम होता है कि इन्हीं राठोर जैन क्षत्रिय राजाओंने यह मन्दिर बनवाया था और हम समझते हैं कि इसी विरमदेवकी मृत्यु जो जाधपरके सरदार थे टाड साहबने राजस्थानमें १३८१ को
नोट--'खरगसी विरमसी' खरगसिंह विरमसिंहके प्रतीक है।